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________________ ११५ प्रात्मा स्वयं अपने लिये वैतरणो और कूट शाल्मली वृक्ष कारण हैं और कर्मो के कारण ही संसार है। कर्म को जैसे ना ना विध दुःखों को पैदा कर लेता है। बांधने वाला व्यक्ति स्वयं है और कर्मों से मुक्त होने के . ८. न तं प्ररी कंठ छित्ता करई, लिये पुरुषार्थ भी स्वयं को ही करना पड़ेगा। जं से करे अप्परिणचा दुरप्पा । सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय है। दुःख और दुराचार में प्रवृत्त हुप्रा यह प्रात्मा स्वयं का जैसा मरण कोई नहीं चाहता। इसलिये प्राणी मात्र को अपने और जितना अनर्थ करता है, वैसा अनर्थ तो कंठ को ही जैसा मानते हुए किसी को भी कष्ट न दो. हिंसा छेदने वाला या काटने वाला शत्रु भी नहीं करता है। न करो। जीवन क्षेत्र में जो कुछ पाप प्रवृति हुई है अनर्थ मय प्रवृति शत्रु की प्रतिक्रिया से भी भयंकर और उसके लिये पश्चाताप करो और किसी भी जीव के साथ अनेक जन्मों में दुःख देने वाली होती है। कोई वैर विरोध का मौका हो गया तो क्षमा मांगो। ___अब महावीर ने मानव को जो नया प्रकाश दिया क्षमा दे दो । संयम और तप आत्म विशुद्धि के महान उसके कतिपय सूत्र नीचे दिये जा रहे हैं । महावीर का साधन हैं । संयम के द्वारा कर्मों के प्राने का मार्ग अवरुद्ध सबसे बड़ा धर्म सन्देश यह है कि यह प्रात्मा ही होता है । और तप के द्वारा पुराने कर्म जीर्ण-शीर्ण परमात्मा है। अनन्त शक्ति और गुणों का यह भण्डार होकर नष्ट हो जाते हैं। स्वाध्याय और ध्यान निरन्तर है। ईश्वर एक नहीं, अनेक है। प्रत्येक प्रात्मा में करते रहो। कषाय और प्रमाद से बचे रहो । सभी परमात्मा अर्थात् सिद्ध होने की पूर्ण क्षमता है उसे प्रकट जीवों के साथ मैत्री भाव रखो। किसी के साथ भी करने के लिये पराश्रित न होकर स्वावलम्बी होना पैर न रखो । सद्धर्म की प्राप्ति सब जीवों को हो ऐसी आवश्यक है । अपने स्वरूप को हम भूल चूके हैं । और भावना रखो और उनके प्रात्मोत्थान में सहायक बनो। पौद्गलिक शरीर, धन और कुटुम्ब प्रादि को अपना गुणी जनों की पूजा निरन्तर करते रहो, पापियों के मान रहे है। प्रति भी घणा का भाव न रखो। ममत्व ही दुःख का यही सबसे बड़ी भूल है। विषय और कषाय पात्मा । कारण है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति ही मोक्ष के दो महान शत्रु हैं। राग और द्वेष ही कर्मबन्ध के मूल का मार्ग है। ___ करता हो तथा चाहे कितना ही तप करता हो। शुद्धात्मा के लक्ष्य को सदैव दृष्टि के सामने रखना नैतिक या मोक्षमार्गीय चेतना का सर्वस्व है । इस दृष्टि का अभाव होते ही जीव मोक्षमार्ग के अपने चरम उद्देश्य से भ्रष्ट हो जाता है। निश्चय नय इसी चरम लक्ष्य के साक्षेप वस्तु की व्याख्या करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014041
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1964
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChainsukhdas Nyayatirth
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size15 MB
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