________________
१०६
करम झकोला दे छ हो लोला,
दृश्य । कला की दृष्टि से यहां बड़े सुन्दर और सटीक अरदी परदी डोले ।
सांग रूपक निर्मित हुए। गुरु पर बीण लगाई,
बारहमासा को आध्यात्मिक रूप देते हए चैत्र मास थाग पाणी से तोलै ॥
से चेतना की प्रेरणा ग्रहण की गई। प्राषाढ़ में जीवन मुक्ति में सबसे बड़ी बाधा मनकी चंचलता प्राशा को फलीभूत होते देखा गया । श्रावण में है । इस चंचल मन को वश में करना बड़ा मुश्किल है- जिनवाणी श्रवण की बाढ़ आई । मगसर में ममता को मन चंचल कैमे मुडे री पापी बिन पांख उदेरी। मिटते देखा । फाल्गुन में समकितरूपी स्त्री के साथ
फाग खेला गया। मन की इस गति को कवियित्री ने कई पदों में प्रकट किया है। यहां एक उदाहरण दृष्टव्य है
"प्रासाढ़ पासा फली रे, मोरया करत मलार ।
सतगुरु इन्द्र धड़कियो, वाणी बरसे सधन घने धार ।। "मन चंचल हाय न आवे । दौड़यो बाहर जावे।। प्रांकई॥
सावण श्रवण रस पीजिए रे, जिनवाणी भरपूर ।
मिथ्या रोग मिटावसी, ज्यांर सिब सुख नहीं छे दूर ।। घेर घेर लामें निज गुण में, तो पिण फंद लगावै, फाल भरे बन्दर की नाइ, कूद किनारे जावे ।।
मिगसर ममता मारने रे, समता करो घर नार ।
सहल करो सिवपुर तरणी, राखो केवल चौकीदार ।। इ चंचल मन को वशीभूत करने का एक उपाय है राम नाम का स्मरण । कवियित्री अपने प्रात्मा राम को
फागण फाग खेलो भवप्राणी, समकित स्त्री के संग। जागृत कर यही उपदेश देती है
पिचकारी पछशारण री, भर डारो सील सुरंग ।।पृ०७०।। उठो रे मेरा पातम राम, जिन गुण गा जाए । उठो।
राखी के त्यौहार पर कवियित्री ने सुमति के परिवार राम नाम का रोक रुपया, अही मैरे माया रे,
को जीमने का अच्छा न्यौता दिया है--तो दीपावली के कुसी पड़े तो करज ले जावो, समरण व्याज लगाया रे।
का
शुभ अवस
शुभ अवसर पर उसने दान के दीपक में समकित की मोह निद्रा में गाफल मत रे, तक र पांच लूटेरा ॥१॥
बाती प्रज्जवलित कर ज्ञान की ज्योति जगाई है । तप के प्रभु नाम का पहरा लगावो, लूट सके नही डेरा ॥२॥ पकवान सजाय हैं और क्षमा की खिड़की से लोक व्यवहार
देखा है। खेलने की प्राध्यात्मिक विधि का एक नमूना प्रकृति चित्रण
देखिये :संत-काव्य प्रकृति पूजक नहीं रहा । वहां प्रकृति
"सुमत गुपत की करो पिचकारी, सौन्दर्य के चटकीले चित्र नहीं मिलते प्रकृति पाई अवश्य
समवर सील भरो पाणी। है पर प्राध्यात्म-चिन्तन को गति देने, मन को विकृति से छुटकारा दिलाने और प्रात्मा को विरागयुक्त करने ।
मन मिरदंगी सुरत सारंगी, जडावजी ने स्वतंत्र रूप से प्रकृति को काव्य का विषय
मधुर मधुर गावो जिनवाणी ।। नहीं बनाया। पर राजुल और नेमिनाथ के संबंध में
नेम धर्म का दोए मजीरा, बारहमासा लिखने की जो परिपाटी चली आ रही थी
सरदा लेर करो प्राणी। उसे अवश्य आगे बढ़ाया। इसी प्रकार होली, दिवाली,
भ्यान गुलाल, अबीर ध्यान को, राखी जैसे लौकिक त्यौहारों को अपना विषय बनाया
पाठ करम करों धूल धारणी ।। पर उन मबको प्राध्यात्म-भावभूमि पर ला उतारा। इस रूपक-योजना प्रवृति का परिणाम यह हना कि प्रकृति का जो प्राकृत कवियित्री ने जगह जगह लौकिक व्यवहार और रूप था वह तो अदृश्य हो गया और उभर कर सामने प्राकृतिक वातावरण की भाव भूमिका पर लम्बे-लम्बे या गया उस पर प्रारोपित शील निरूपण का रूढ़िगत सुन्दर रूपक बांधे हैं। यहां शील-रथ और मुक्ति का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org