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न
जाय ||
समद्र वेतो डाकल्यू जीवांजी । हारे जीवा, भव जल डास्यों न जाय । बालक ने तो राख लू जीवा । हारे जीवा, मन बस राख्यो सांकल ने तो तोडल्यू जीवा हारे जीवा, त्रिसना तोड़ी न जाय । घोड़ो ने तो मोड लू ममता मोड़ी न
जीवा । हारे जीवा,
जाय ॥
धातु ने तो गालद् जीवा । रुस्यो ने तो मनाय ल्यू जीवा । मरता राख्यों न जाय 1
घाव लगे तो भूली ए जीवा हारे जीवा,
तो तोड़ सकती है पर तृष्णा को कैसे तोड़े ? वह घोड़े की रास तो मोड़ सकती है पर ममता को कैसे मोड़े ? वह धातु को तो गला सकती है पर श्रभिमान को कैसे गलाये ? रुठे हुए को मना सकती है पर मृत्यु को कैसे मनाए ? घावों को भूल सकती है पर कुवचनों की जलन को कैसे भूले ? बांधे हुए को छोड़ सकती है। पर कुलक्षणों को कैसे छोड़े ? दुश्मन को जीत सकती है पर मोह कर्म पर कैसे विजय प्राप्त करे ? कागज को बांच सकती है पर कर्म-रेखा को कैसे बांचे?
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गरबन गाल्यो जाय, हारे जीवा,
जाय भुल्या न
जीवा हारे जीवा, छोड्यो न जाय
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कुवचन पकड्यो वे तो छोड़ कुल कुलछरण वेरी वे तो जीतल्यू जीवा । हारे जीवा, मोह क्रम जीत्यो न जाय । कागद वे तो बांच लू जीवा हारे जीवा, कर्म न वाक्यां जाय I
यही विवशता है भक्त की भगवान के धागे पर भक्त में मारया है, विश्वास है। वह इस दूरी को मिटाने का प्रयत्न करता है। कवयित्री अपने प्रयत्न में कभी नो उपास्य को उपालंभ देती है
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"भेलाइ सुख दुख भोगव्याजी, भेलाइ खेल्या खेल । श्राप तो भुगत पधार्या, मां ने चोरासी में भेल ।। " कभी मोरां को भांति उसके साथ " पूर्व जन्म की प्रीत" का सम्बन्ध जोड़ती है
" पर दुख भंजरण प्राप तो छो, मारी पाल जो पूरण प्रीत" और कभी धात्म साक्षात्कार के लिये पूर्ण तैयारी करती है
"ज्ञान का घोड़ा पित्त की चाबुक, विनय लगाम लगाई। तप तरवार भाव का भाला, खिम्पा ढाल बंधाई || सत संजम का दिया मोरचा, किरिया तोप चढ़ाई । सझाय पंच का दारू सोसा, तोया दीवी चलाई || राम नाम का रथ सिरगगारिया, दान दया की फौज । हरख भाव से हाथी हौदे बैठा पावो मौज ॥ साच सिपाही पायक पाला, संवर का रस वाला धर्म राय का हुकुम हुआ जब फौजा श्रागी चाला || " पर आत्म साक्षात्कार की अनुभूति के गीतों का उल्लास यहां नहीं है । यहां केवल परमात्मा के स्वरूप और स्वभाव का चित्रण किया गया है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि जड़ावजी की भक्ति भावना में ब्रह्म के प्रति मिलन की तड़फ तो है पर यह मिलन क्षण जीवी न होकर अपने अन्तराल में चिरन्तन सुख और अबाध मानन्द को साथ छिपाये है जिसकी पूर्ति जीवनमुक्त दशा में ही संभव है ।
आध्यात्म-चिन्तन
प्रालोच्य कवियित्री की दूसरी प्रवृत्ति संत काव्य धारा से मेलखाती है। संतों ने नारी को साधना में बाधक माना है वहां भक्त कवियों ने नारी बन कर ही भगवान की उपासना की है। जड़ावजी ने प्रत्यक्ष रूप से नारी की निंदा नहीं की पर सुमति कुमति का द्वन्द बता कर कुमति की निन्दा कर नारी जाति की दुष्प्रवृत्तियों की भर्त्सना की है। संत काव्य में गुरु को आध्यात्मिक महत्व दिया गया है। जड़ावजी ने भी गुरु महिमा में कई भावपूर्ण पद लिखे हैं इनकी प्रेरणा से ही वह जीवन नैया को पार लगाना चाहती है
"गुरुजी मारी नावा पार लगावो । मुगति की राह बतामो ॥ काया में माया भोत भरी है, हीरो, लाल, चूनी मोती । पंना पांच पर तीन रतन महाहे लागि जिगामग ज्योति ॥
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