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ने नवबाड़, २२ परिषह, ३३ प्रासातना, पौषध के दोष, सामायिक के ३२ दोष १८ पाय, १४ नियम १० बोल, चार शरणा यादि का तत्वज्ञान सर्व सुलभ बनाने की दृष्टि से इन विभिन्न प्रागमिक सिद्धान्तों और बोलों को पद्यबद्ध कर दिया है। यहां कविता के माध्यम से तास्विक मीमांसा न होकर तत्व बोध के आग्रह से ही कविता को माध्यम बनाया गया है । भक्ति भावना
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जड़ावजी की भक्ति भावना पर विचार करते समय इस तथ्य को नहीं भुनाया जाना चाहिये कि जैन दर्शन ने श्रात्मा को ही परमात्मा बनाने के लिये साधना का पथ प्रदास्त किया है। सतः धन्य दर्शनों में भक्त पौर भगवान के बीच जो पारिवारिक दाम्पत्य मूलक, वात्सल्य मूलक आदि सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं वे यहाँ इतने सहज नहीं एक नारी प्रेम मांसू और करुणा का अर्ध्य चढ़ा-चढ़ा कर प्रियतम को रिझाना चाहती है पर यहां उस प्रकार की मनुरक्ति के लिये स्थान कहाँ ? यहां तो पद पद पर विरक्ति है । यहां का श्राराध्य यदि तीर्थंकर हैं तो बालक होने से पूर्व ही भगवान है । युवा होने के पूर्व ब्रह्मचारी है। उसके नर रूप में ही नाराय रणत्व की प्रतिष्ठा है । ऐसे प्राराध्य के प्रति श्रद्धा हो सकती है । पर कृष्ण भक्त कवयित्रियों की तरह उसके साथ गलवाही डाल कर रास लीला नहीं खेली जा सकती। यही कारण है कि जैन कवयित्री होने के नाते भक्ति के नाम पर प्रेम का उद्दाम वेग जडावजी की रचनाओं में नहीं मिलेगा । पर यह भी स्मरणीय है कि जडावजी स्त्री है। उनमें भी हृदय है। इसलिये इनकी भक्ति केवल मात्र ज्ञान मूलक विरक्ति मूलक या नीरस न होकर सात्विक प्रेम भावना से सजल और सरस भी है।
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कृष्ण भक्त कवियित्रियों ने जहां कृष्ण को अपना द्वाराध्य बनाया वहां इस कवयित्री ने श्री मंधरस्वामी को नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के प्रति भी इस प्रकार की अनन्य भावना व्यक्त की गई है । कृष्ण भक्त कवयित्रियों ने रुक्मरिण के माध्यम से अपनी कोमल प्रेम भावना बिबेरी है तो इस जैन कवयित्री ने राजुल को
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मधुर भावना का प्रतीक मान कर उसकी विरह व्यथा और करुणा का चित्र खींचा है।
कवयित्री अपने प्रिय से मिलना चाहती है। पर कैसे मिले ? दोनों के बीच दूरी है। यह दूरी स्थानगत ही नहीं भावगत भी है उसके धाराध्य महाविदेह क्षेत्र में विराजमान है और वह अकेली इस भरत क्षेत्र में पड़ी है। बीच में बड़ी बड़ी घाटियां है। ऊँचे-ऊंचे पर्वत हैं, वेगवती नदियों का बहाव है। वह भाखिर पहुंचे तो कैसे ? उसके पास कोई लब्धि नहीं, शक्ति नहीं, विद्याधर उसके मित्र नहीं वह तो पातक की भांति इक टक अपने प्रिय को निहारती रहती है उसकी तो यही 'पीपी' की पुकार हैं।
'खेत्र विदेह विराजियाजी, श्रीमंधर स्वामी । हो जी म्हारा अन्तर गामी ॥ हूं इस भरत मोझारे, सिवगत गामी ग्रांकड़ी || १ || बिन देख्या मन भुलसे जी, जिम चातिक जलधार ॥२॥ लबद विद्या नहीं मां कने जी, पांखे नहीं तन माय ||३|| विद्याधर मैत्री नहीं जी, किन विद मेलो धाय ॥४॥ दूर दिसावर यापरो जी, बिच में विखमी बाट ||५|| आडा इगर बने गणां जी, नदियां प्रो घट घाट ॥६॥
भावगत दूरी इस स्थानगत दूरी से भी अधिक गंभीर सूक्ष्म और भयावह है। वह कमों के घेरे में बंदी । है। राग द्वेष दो पोलिया खड़े हैं, चार कपास चौकीदार हैं। घेरे को तोड़ कर वह कैसे आये ?
राग ने पेक दोनु पोलिया चौकी चार कवाय आठ करम रो घेरो लागियो, मिलरण न दे म्हाराय || तन मन तरसै हो दर्शन देखवा, बरस रह्या मुरंज नै । लबद विद्या तो हम पासै नहीं, किरण विध ग्राऊँ सैरण || चंद चकोरा श्री मोरा मोहन, पति वरता पति जेम । इण विद चाऊँ श्रो दर्शरण प्रापरो पिरण प्राइजे केम ||
कवयित्री विवश है असहाय है पर क्या करे ? स्थूल बाधाओं को दूर करने की तो उसमें हिम्मत है। वह समुद्र को तो लांघ सकती है पर संसार सागर को कैसे लांघे ? वह बालक का तो मन बहला सकती है पर स्वयं अपने मन को कैसे रक्खे ? वह लोह श्रृंखला को
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