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पदार्थ निमित्त भी बनते हैं किंतु वे भी वस्तु की सीमा है। पदार्थों के परस्पर प्रात्यंतिक पृथकत्व के कारण जड़ के बाहर ही रहते हैं। वस्तु के कार्य-क्षेत्र में उनका चेतन, चेतना-चेतन, तथा जड़-जड़ में कभी कर्ता-कर्म प्रवेश नहीं होता। यह जैन-दर्शन में अनेकांत की स्थिति तथा कारण-कार्य भाव बनता ही नहीं है। इस प्रकार है जिसके कारण सारा अनंत विश्व अपने स्वरूप में एकही पदार्थ में अस्ति-नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, व्यवस्थित रहता हा अनंत सौंदर्य को प्राप्त होता है। तत्-प्रतत् आदि परस्पर विरुद्ध अनंत सापेक्ष धर्म विद्यमान पदार्थ एक ही समय में स्वः अपेक्षा अस्तिरूप ही
, रहते हैं जिन्हें अनेकांत कहते हैं और यह अनेकांत वस्तु
रह था पर प्रपेक्षा नास्तिरूप ही है। इस प्रकार बह प्रस्ति- स्वभाव है। पदार्थ में अनंत शक्ति की विद्यमानता अन्य रूप भी है और अपने में परके अभाव के कारण वही
दर्शन भी स्वीकार करते हैं किंत जो बस्तु के वस्तत्व के नास्तिरूप भी है। वह द्रव्य अपेक्षा नित्य ही है। क्यों
नियामक है उन परस्पर विरुद्ध अनंत सापेक्षा धर्मों की कि पदार्थ संबंध में 'यह वही है जो पहिले देखा था'
एक ही वस्तु में विद्यमानता केवल जैन दर्शन ही स्वीकार इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञानात्मक प्रतीति उसकी नित्यता
करता है । इस प्रकार जैन दर्शन का संपूर्ण तत्वज्ञान को घोषित करती है। तया वही पदार्थ पर्याय अपेक्षा
प्रासाद अनेकांत की ठोस आधार शिला पर खड़ा हुआ है। अनित्य ही है । क्यों कि उसका रूपान्तर प्रति समय
अनेकांत की इस कसौटी पर यदि हम हिंसा-अहिंसा प्रतिभासित होता है । इस प्रकार वह एक ही समय में की परीक्षा करके देखें तो हमें विदित होगा जब एक नित्यानित्यात्मक है। वह द्रव्य अपेक्षा भी नित्य हो जीव संपूर्ण जड़-चेतन विश्व से भिन्न अपने स्वरूप में
और पर्याय अपेक्षा भी नित्य हो, अथवा वह द्रव्य अपेक्षा ही सदा प्रतिष्ठित रहता है और नित्य ध्र व रहकर नित्य भी हो और अनित्य भी ऐसा नहीं है । एक जीव प्रतिक्षण अपना विकारी अथवा निर्विकारी उत्पाद-व्यय स्व अपेक्षा से भी जी जीव हो और अन्य जीव तथा जड़ स्वयं ही निरपेक्ष भाव से किया करता है तो एक जीव की अपेक्षा भी जीव हो अथवा वह जीव भी हो और हिंसक और दूसरा हिंस्य-इस प्रकार का द्वैत ही उत्पन्न अजीव भी हो अथवा वह स्वकार्य भी करता हो और पर नहीं होता। जीव का प्रति समय का उत्पाद-व्यय ही कार्य भी। अनेकांत में 'भी' का ऐसा गलत प्रयोग नहीं उसका जीवन-मरण है जो वस्तु स्वभाव है। इस
विकोई कल्पना नहीं उतपाद-व्यय की सरिता में जीव प्रति समय उन्मग्न होती। यदि कर्ता कोई एक पदार्थ हो उसका कार्य किसी निमग्न हुमा करता है । यही उसका व्यापार है। तब दसरे पदार्थ में हो और कारण कोई तीसरा पदार्थ हो फिर कौन किस समय किसकी हिंसा अथवा रक्षा करे। तो तीनों में से कार्य के फल का उपयोग कौन करेगा?
और होगा यदि एक जीवके जीवन और मरण में किसी अन्य जड़ यहीं बड़ी दुविधा उत्पन्न हो जायेगी । प्रतः एक पदार्थ अथवा चेतन पदार्थ का अधिकार स्वीकार कर लिया अभिन्न भाव से स्वका कर्ता, कर्म, करण है ऐसा अस्ति- जाय तो फिर किसी जीव के वध के सहस्र सहस्र मूलक भाव और वह परका कर्ता, कर्म, करण नहीं है प्रयत्न करने पर भी उसका वध शक्य क्यों नहीं होता ऐसा नास्ति-मूलक-भाव अनेकांत है । कर्ता, कर्म, करण मोर किसी जीव की रक्षा के लक्ष लक्ष प्रयत भी अभिन्न एक ही वस्तु में होते हैं। ऐसा अबाधित नियम क्यों हो जाते हैं?
प्रतः भिन्न पदाथों में यदि कर्ता, कर्म, करणत्व की इस प्रकार एक जीव तथा अन्य जड़-चेतन पदार्थों संभावना को जाय तो उनके ऐक्य का प्रसंग उपस्थित में परस्पर वध्य-घातक भाव प्रसिद्ध होने पर भी यह होगा और यहीं एकांत है। और दो पदार्थ कभी एक प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि लोक में जीव को
लोक होते नहीं है. मारने और बचाने का जो प्रनादि व्यवहार प्रचलित है यदि ऐसा होने लगे तो विश्व का स्वरूप ही नष्ट भृष्ट क्या वह सर्वथा असत् है ? यदि मनेकांत के प्रकाश में हो जायगा। अतः ऐसे एकांत की कल्पना सर्वथा मिथ्या वस्तु-स्थिति का अवलोकन किया जाय तो यह निविवाद
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