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है कि वस्तु-स्थिति का इस लोक व्यवहार से कोई सदा ही परोक्ष है कि कोई जीव किसी के प्राणों का सम्बन्ध नहीं है । कोई जीव अपने चतुष्टय की चतुः अपहरण अथवा रक्षा नहीं कर सकता किन्तु प्रत्येक सीमा से बाहर कभी निकलता ही नहीं है। जिसे हम प्राणी मायु परिवर्तन के क्षण को प्राप्त होकर स्वयं ही व्यवहार में हिंसक कहते हैं वह भी सदा अपनी सीमा में अन्य गति के प्रति गमन करता हैं तब सहज विद्यमान विद्यमान है और जिसे हम हिंसक कहते हैं वह भी अपनी अनुकूल चतुर्दिक वातावरण पर उसकी रक्षा अथवा सीमा कभी छोड़ता नहीं है। दोनों स्व-स्व कार्य निरत मरण के कर्तत्व का उपचार किया जाता है, यह व्यवहार हैं । जिसे हम हिंसक कहते हैं वह हिंसा के विकल्परूप नयकी औपचारिक शैली है जो वस्तु की बहिरंग स्थिति अपने विकारी कृत्य में निरत हैं तथा जिसे हम हिंस्य के द्वारा वस्तु को प्रस्तुत करती है। इस प्रकार लोक में कहते हैं वह अपनी अवस्या के वर्तमान आकार का वध एवं रक्षा के रूप में हिंसा-अहिंसा का जो व्यवहार परित्याग करके दूसरे प्राकार को प्राप्त करने जा रहा प्रचलित है वह वास्तविक नहीं वरन् प्रौपचारिक ही है। है। प्रतः वध और रक्षा का व्यवहार वास्तविक नहीं . इस संपर्ण विवेचन से यह बात स्पष्ट की जा वरन औपचारिक ही है । 'भगवान की कृपा से मुक्ति सकती है कि जब कोई किसी का वध नहीं कर सकता मिली' तथा 'गुरु के प्रसाद से ज्ञान मिला' आदि निमित्त और किसी प्राणी की किसी के द्वारा रक्षा नहीं की मुख्यता से अगणित उपचार होते हैं। किन्तु वस्तु- हो सकती तो फिर हिंसा अहिंसा नाम की कोई स्थिति इस कथन के अनुकूल नहीं होती। भगवान की
चीज भी नहीं है ? इस प्रश्न के समाधान के वीतरागता में कृपा के लिये कोई अवकाश नहीं है। हां!
!! लिये हमें हिंसा-अहिंसा के स्वरूप पर विचार करना प्रत्येक वही प्राणी उनकी वीतरागता से अपनी पात्रता ।
" चाहिये । वास्तव में हिंसा-अहिंसा प्रात्मा की पर्यायें हैं । के अनकल प्रेरणा ले सकता है यही उनका निमित्तत्व हैं। जड में उनका जन्म नहीं होता । यदि कोई पत्थर है और इसी को व्यवहार में उनकी कृपा करते हैं। किसी प्राणी पर गिर जाय और उसके निमित्त से उस इसी प्रकार गुरु के द्वारा प्रदिपादित तत्व को सम्पादित
प्राणी की वर्तमान पर्याय का अंत हो जायें अर्थात् मरण किये बिना गुरु का प्रसाद भी कुछ नहीं है । इस प्रकार हो जाय तो पत्थर को हिंसा नहीं होती। किंतु कोई के कथन में विद्यमान, अनुकूल निमित्त का कार्य के कतृत्व जीव किसी के वध का विकल्प करे तो उसे अवश्य हिंसा का श्रेय देते हुए भी उसी के साथ परिणत उपादान को
होती है, अतः हिंसा-अहिंसा चेतन की विकारी तथा ही कार्य के कर्तृत्व का संपूर्ण श्रेय है । क्योंकि कार्य
निर्विकारी दशायें हैं, आत्मा अपने में स्वाधीनता से उनको उपादेन में उसकी स्वशक्ति से ही निष्पन्न होता है।
उत्पन्न करता है। हिंसा का लक्ष्य 'प्रमत्त योगात् प्राणवस्तु की इस अंतरंग (उपादान सबंधित) एवं ... व्यपरोपणं' कहा है । प्रमत्त-योग प्रात्मा का ही विकारी
निमित्त एवं संयोग से संबंधित), स्थिति को कर्म है अतः उस प्रमत्त योगरूप विकारी कर्म का फल जानने एवं प्रस्तुत करने की दो पद्धतियां लोक एवं प्राण-व्यपरोपण भी प्रात्मा में ही होता है। प्रमत्त योग मागम सम्मत हैं । जो वस्तु की अंतरंग स्थिति को रूप अपराध एक आत्मा करे और उसका फल प्राणनिरपेक्ष रूप में प्रस्तुत करती है उस शैली को निश्चय- व्यपरोपण कोई दूसरा प्राणी भोगे, यह अनर्थ लोक में नय कहते हैं और जो वस्तु के बाह्य वातावरण का भी सह्य नहीं होता। प्रात्मा का एक नित्य शुद्ध त्रैकाअध्ययन के द्वारा वस्तु का ही प्रतिपादन करती है लिक ध्रव स्वरूप है । वही उसका वास्तविक रूप है। उस शैली को व्यवहार नय कहते हैं। इन दोनों नयों के उसका पर्यायाश्रित वर्तमान स्वरूप विकारी है अत: वह प्रकाश में यदि हम हिंसा अहिंसा की समीक्षा करें तो वास्तविक नहीं है। वस्तु की इन दोनों स्थिति को 'एक जीव दूसरे जीव का वध अथवा रक्षा करता है। समझ कर जो अपने शुद्ध त्रैकालिक स्वरूप में अपनी इस निमित्त सापेक्ष कथन में निश्चय-नयका यह रूप तो वर्तमान पर्याय का विलय अर्थात् तल्लीनता करता है
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उत्पन्न करता है
बहिरंग
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