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देते हैं और दूसरी और हम 'जीम्रो मोर जीने दो' का राग भी बलाते चलते हैं। यदि धारमा स्वभाव से अमर है तो फिर एक प्राणी के द्वारा दूसरे प्राणी के वध और रक्षा की बात में कितनी सचाई है ? जो कभी मरता ही नहीं है उसके वध और रक्षा को बात कभी भी वास्तविक नहीं हो सकती। हां प्रारमा प्रमर होते ! हुए भी उसके वध और रक्षा की सतत् श्रद्धा प्रशान के कारण उत्पन्न तो हो सकती है किंतु इस प्रास्या के साथ आत्मा के वध और रक्षा जैसी अघटित बातें घटित होने लग जांय यह असंभव है अथवा ग्रात्मा के वध और रक्षा की व्यवहार नयात्मक शैली में निहित अपेक्षाओं को समझे बिना प्रात्मा के एकान्त वध और रक्षा का सिद्धांत स्वीकार कर लिया जाय तो झात्मा की भ्रमरता का सिद्धांत काल्पनिक ही रह जायगा ।
महावीर ने महिसा का जो भव्य स्वरूप विश्व को दिया वह अनेकांत से अनुशासित होने के कारण अपने में इतना परिपूर्ण है कि दूसरे जीव को बचाने रूप स्थूल लौकिक हिंसा तो उसमें सहज ही पालित होती पलती है | आत्मा की अमरता का सिद्धांत स्वीकार कर लेने पर क्यों कि जीव मरता ही नहीं है इस सिद्धांत से छल ग्रहण करके हिंसावृत्तियों को प्रोत्साहित करने के लिये वहां रंव भी अवकाश नहीं किंतु क्योंकि जीव मरता ही नहीं है' प्रतः जीव को मारने के धमकी विफलता ज्ञात होजाने पर वध और रक्षामूलक अहंकार तो समाप्त होही जाता है साथ ही शनैः शनैः हिंसावृत्तियों का भी शमन होने लगता है । फलस्वरूप श्रात्मपौरुष का उपयोग एवं प्रयोग आत्म विकास के लिये हो होने लगता है ।
महावीर के अनेकांतिक शासन में चेतन एवं जड़ सभी की अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है। सभी पदार्थ एक दूसरे से प्रत्यंत पृथक रहकर अपने गर्भ में विद्यमान अनंत शक्तियों के बल पर ही अपना जीवन संचालित करते रहते हैं। प्रत्येक जड़ चेतन पदार्थ की काया परस्पर विरुद्ध अनंत धर्मों से निर्मित है । ये परस्पर विरुद्ध धर्म उस वस्तु के वस्तुत्व की रक्षा करते हैं । समयसार परमागम की गाया की टीका करते हुए भावार्य
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श्री अमृतचन्द ने वस्तु के इस प्रनैकांतिक स्वभाव की महिमा के गीत गाये हैं।
इस प्रकार लोक में एक पदार्थ का दूसरे पदार्थों के प्रति यही महान उपकार है कि वह अपने अविरुद्ध स्वभाव के कारण अपने स्वरूप में ही रहता और विरुद्ध स्वभाव के कारण पर को अपने रूप में नहीं होने देता । प्रर्थात् वह सदा पर से विभक्त रहकर अपने एकत्व में प्रतिष्ठित रहता है । यह एकत्व हो वस्तु का परम सौंदर्य है । आत्मा स्वभाव से एकाकी होते हुए भी अपने से पृथक् वस्तु के प्रति विविध विकल्प करता है और यह बंध की कथा ही चेतन की पर्याय में विसंवाद उत्पन्न करती है । यही हिंसा है।
वस्तु के अनैकांतिक स्वरूप में परस्पर विरुद्ध दो पहलू स्पष्ट दृष्टि गोचर होते है । एक उसका वह पहलू है जिसके कारण जो कुछ उसका अपना कुछ उसका अपना है उसी में रहता हैं। यह पदार्थ अपने द्रव्य (त्रं कालिकता) अपने क्षेत्र (प्रदेश) अपने काल (अणिक पर्याय) और अपने भाव ( अनंत शक्तियां) की चतुः सोमा में ही विद्यमान रहता है । इसे वस्तु का अस्ति धर्म कहते हैं। इसके विरुद्ध उसका एक दूसरा पहलू है जिसके कारण उसको चतुः सीमा (चतुष्ट) में उससे भिन्न सम्पूर्ण विश्व का प्रवेश निषिद्ध है। इसे पदार्थ का नास्ति धर्म कहते हैं। इस प्रकार पदार्थ एक एकाकी रहता है। इन्हीं विशेपताओं के कारण चेतन सदा चेतन रहता है मोर जड़ सदा जड़ । चेतन सदा अपना काम करता है और जड़ कभी अन्य जड़ तथा चेतन को लाभ हानि नहीं करता । चेतन कभी जड़ के कार्य का कर्ता तथा कारण नहीं बनता और जड़ कभी अन्य जड़ तथा चेतन के कार्य का कर्त्ता तथा कारण नहीं बनता । चेतन तथा जड़ सभी पदार्थ अपने में विद्यमान अनित्य धर्म के कारण सदा स्वतः प्रतिक्षण अपनी प्रवस्थाओं में परिवर्तन किया करते हैं यही वस्तु की मर्यादा है। अपनी इस मर्यादा में विद्यमान पदार्थ को अपने अनादि धनंत जीवन में अन्य अनंत पदार्थों का संयोग भी होता है और वियोग भी किंतु वह समस्त संयोग वियोग वस्तु की सीमा के बाहर ही होता । वस्तु में प्रति समय उत्पन्न होने वाले कार्यों में अनंत
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