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इक्कीसवीं सदी में जैन विद्या-शोध
डॉ० कपूरचन्द जैन आज का युग विकास का युग है। नित नये परिवर्तन मानविकी और विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे हैं, इसी गति से उनका अध्ययन भी हो रहा है। बीसवीं सदी में नये-नये विषयों की खोज हुई, उन पर अध्ययन-अध्यापन हुआ पर इक्कीसवीं सदी में एक-एक विषय की अनेक धाराओं में खोज और अध्ययन की संभावनाएं हैं। बीसवीं सदी में हम सूक्ष्म की ओर बढ़े, तो इक्कीसवीं में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और फिर सूक्ष्मतम अध्ययन की ओर हमें जाना है। अतः इक्कीसवीं सदी की तैयारी हमें अभी से करनी होगी।
इक्कीसवीं सदी में वैज्ञानिक विकास के साथ जीव-संहार के संसाधन भी बढ़ेंगे और उसी गति से, अहिंसा, समानता, मानवता, जीवदया भाईचारा जैसी भावनाओं का प्रचार-प्रसार भी बढ़ेगा। इस हेतु मानवतावादी दृष्टिकोण रखने वालों, विशेषतः भगवान महावीर के अनुयायियों को तैयार रहना चाहिए और एक सूत्र व एक भावना में बंधकर महावीर के सिद्धांतों को समग्र विश्व में फैलाना चाहिए, क्योंकि संहारवादी इक्कीसवीं सदी में इन सिद्धान्तों की अधिक आवश्यकता होगी।
समग्र विश्व को अहिंसा की सूक्ष्मतम व्याख्या प्रतिपादित करने वाले जैन धर्म, उसकी संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन में बीसवीं सदी में हुए और इक्कीसवीं सदी में संभावित शोध कार्य की चर्चा इस आलेख का मुख्य विषय है।
समग्र प्राचीन जैन-आगम प्राकृत भाषा में ही निबद्ध हैं, यदि यह कहा जाए कि प्राकृत साहित्य-जैन साहित्य है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्राकृत के बाद उसका अपभ्रंश रूप अपभ्रंश भाषा के रूप में सामने आया। अपभ्रंश का बहुभाग जैन साहित्य से समृद्ध है, विशेषतः दिगम्बर जैन साहित्य काफी मात्रा में अपभ्रंश में लिखा गया है।
संस्कृत भाषा में विपुल जैन साहित्य लिखा गया। दक्षिण भारतीय भाषायें भी जैन साहित्य से अछूती नहीं हैं। कन्नड़ का बहुभाग जैन साहित्य ही है, मराठी भाषा में भी अत्यधिक मात्रा में जैन साहित्य उपलब्ध होता है। वर्तमान में हिन्दी भाषा में ही अधिकांश जैन साहित्य लिखा और प्रकाशित किया जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार विगत
गों में जितना जैन साहित्य प्रकाशित हुआ है, उतना पिछली दो सहस्त्राब्दियों में भी नहीं हुआ था। विपुलता और गुणवत्ता दोनों दृष्टियों से जैन साहित्य कम नहीं है।
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान जैनागम और आगमेतर विषयों की ओर गया। इस अवधि में हजारों की संख्या में ग्रन्थ लिखे गये और प्रकाशित हुए। प्राचीन ग्रन्थों का भी प्रकाशन हुआ। गवेषणात्मक और तुलनात्मक ग्रन्थ भी विपुल मात्रा में प्रकाशित हुए, पर इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि आज भी जैन ग्रंथों का कोई पूर्ण पुस्तकालय नहीं है, न ही जैन ग्रन्थों की समग्र सूची प्रकाशित हो सकी है। समग्र पुस्तकालय के अभाव में जहां पठनेच्छु यत्र-तत्र भटकता है वहीं भारतीय साहित्य की विकास यात्रा में जैन साहित्य के अवदान को भी रेखांकित नहीं किया जा सका है। 50-60' वर्ष पूर्व भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना ने यह कार्य प्रारम्भ किया था, और प्रथम भाग 'जिनरत्न कोष' के नाम से प्रकाशित किया था पर उसके आगे के भाग प्रकाशित नहीं हो सके। यदि दो भाग और इसी तरह के प्रकाशित हो जाते तो यह कोष बड़ा लाभप्रद होता। जो जैन समाज पंचकल्याणकों, धर्मशालाओं, मन्दिरों, तीर्थयात्राओं, अस्पतालों आदि पर अरबों रुपये प्रतिवर्ष व्यय करता है, उसे इस ओर दत्तावधान होना चाहिए।
प्राकृत, अपभ्रंश और जैनविद्याओं पर शोध-उपाधियों यथा पी०एच०डी०, डी० लिट्, विद्यावाचस्पति, विद्यावारिधी, डी०फिल, लघु शोध-प्रबन्ध (एम०ए० एवं एम०फिल्० के डेजर्टेशन के रूप में) आदि उपाधियों हेतु अनेक शोध-प्रबन्ध विभिन्न विश्वविद्यालयों में लिखे गये, पर उनकी कोई प्रामाणिक सूची प्रकाशित नहीं हुई। भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली ने 'प्राच्य विद्या सम्मेलन वाराणसी' के अवसर पर एक जैन संगोष्ठी का आयोजन 1968 में किया
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