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________________ है। 16 शाकाहार पोषक तत्वों का भण्डार है और मानव शरीर के लिए प्राकृतिक भोजन है, जबकि मांसाहार प्रकृति के लिए एक विकृति है। आज विश्व में शाकाहार का जितना विश्लेषण हुआ है उससे प्रकृति के संरक्षण की संभावनाएं बढ़ी हैं। विभिन्न खोजों के आधार पर शाकाहार के पक्षधरों ने अंडे के संबंध में किए गए दुष्प्रचार को गलत साबित किया है कि अंडा शाकाहारी है। शाकाहार सात्विक विचार और आचार का भी आधार है। जैन आगमों में तो आहार को एक तप ही माना गया है। यदि व्यक्ति का आहार सधर जाय तो उसका जीवन सधरने में अधिक समय नहीं लगेगा। शायद यही कारण है कि जैन ग्रन्थों में आहार को सुधारने पर विशेष बल दिया गया है। मनुष्य की क्रूर भावनाओं का उन्मूलन शाकाहार से ही संभनव है। शाकाहार से ही मनुष्य के मन में निर्मलता का संचार होता है। शाकाहार वास्तव में समता की साधना है। इस तरह जैन आगमों में प्राप्त आहार संबंधी सभी तथ्यों का यदि पूर्ण विश्लेषण किया जाय तो पर्यावरण-संतुलन के लिए अनेक सूत्र प्राप्त हो सकते हैं। संदर्भ जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, चौखम्बा, वाराणसी 1965 (क) भगवती सूत्र-ए स्टडी, (डा० जे०सी० सिकदर) वैशाली (ख) उत्तराध्ययन सूत्र का समीक्षात्मक परिशीलन, (डा० सुदर्शन लाल जैन) वाराणसी। आचारांगसूत्र का दार्शनिक अध्ययन, (पं० परमेष्ठीदास जैन) वाराणसी। उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 26 गाथा 33-34 वही, अ. 35 गाथा 10 जलधननिस्सिया जीवा, पुढवीक्ट्ठनिस्सिया। हम्मन्ति मत्तपाणेसु तम्हा भिक्खू न पाचए।। उत्तरा० 35/11 दशवैकालिक सूत्र (सम्पा. युवाचार्य महाप्रज्ञ) लाडनूं, 1974, पृ० 107 वही, अ.4 सूत्र 16 जयं चरे जयं चिठे जयमा से जयं सए। जयं भुजंतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई।। दशवै० 4/8 पुरओ जुगमायाए पहमाणो महिं चरे। वजंतो बीच-हरियाई पाणे य दगमट्टियं ।। दशवै० 5/3 दशवकालिक सूत्र, अ.5 गाथा 29 कदं मूलं पलंबं वा आमं छिन्नं व सन्निकं। लुंबागं सिंगबेर च आमगं परिवज्जए।। दशवै०5/70 गा. 73 की व्याख्या, पृ.244 चत्तादि, महाविगतीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-महुं, मंसं, मज्जं, णवणीतं । । स्थानांगसूत्र 4/185 स्थानांगसूत्र 9/23 हिंसे बाले मुसावाई मा ल्ले पिसुणे सढे । भुजमाने सुरं मंस सेयमेयं ति मन्नई।। उत्तरा० 5/9 पर्यावरण-संतुलन और सात्विक आहार (डा० रामजीसिंह)। प्राकृत विद्या, पर्यावरण-संतुलन एवं शाकाहार विशेषांक, उदयपुर 1991 पृ. 60-61 321ए, सी सैक्टर शाहपुरा, भोपाल (म०प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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