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________________ जैन आगमों के प्रसिद्ध ग्रंथ दशवैकालिक सूत्र में मुनियों की आहारचर्या के संबंध में विस्तृत विवरण प्राप्त है। चतुर्थ अध्ययन में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में चेतनता का वर्णन कर और त्रस जीवों के प्रकारों का वर्णन कर सब प्रकार के जीवों की हिंसा से विरक्त रहने का विधान किया गया है। जीवों की रक्षा का पूर्ण रूप से पालन करने के लिए ही आहारचर्या के अन्तर्गत यलपूर्वक आहार लेने का विधान है और रात्रि-भोजन-त्याग का निरूपण है।' दशवैकालिक सूत्र में पर्यावरण-संरक्षण के लिए एक आधारभूत सूत्र प्रस्तुत किया गया है कि यदि व्यक्ति सावधानीपूर्वक जीवों की रक्षा का प्रयत्न करते हुए चले, खड़ा हो, बैठे, सोये, भोजन करे और बोले तो उसे पापकर्म का बंध नहीं होता', अर्थात् उसके द्वारा जीवन यापन की गई क्रियाएं समस्त प्राकृतिक-सम्पदा को सुरक्षित रखने में सहायक हैं। इसी ग्रंथ में आहार-ग्रहण के प्रसंग में पर्यावरण-संरक्षण के लिए अन्य कई सूत्र भी उपलब्ध हैं। विहार करने के प्रसंग में बताया गया है कि साधक चलते समय रास्ते में पड़े हुए बीज, हरियाली, जल, गीली मिट्टी एवं प्राणियों को देखकर उनको बचाता हुआ गमन करे। और अगर को गृहिणी प्राणी, बीज हरियाली आदि को कुचलती हुई आहार लेकर मुनि को दे तो साधु उस आहार को न ले। इसी तरह कंदमूल, पत्ती वाला साग, बिना पके हुए फल, इत्यादि वस्तुओं को भी आहार में न लेने का विधान दशवैकालिक सूत्र में है।" इसी प्रसंग में 'पुद्गल' और 'अनिमिष' नामक पदार्थों को ग्रहण न करने का उल्लेख है। ये दोनों शब्द जैन आगम साहित्य में बहुत चर्चित हैं। टीकाकारों ने इनका अर्थ मांस और मछली किया है जो मुनियों के लिए अभक्ष्य माने गए हैं। इस तरह जैन आगमों में शुद्ध, भक्ष्य, शाकाहारी भोजन को ही ग्रहण करने का विधान है। मांसाहार और अभक्ष्य पदार्थ सर्वथा त्याज्य हैं। अहिंसक दृष्टि के कारण मद्य, मांस, मध आदि पदार्थों को भी अभक्ष्य माना गया है। 13 स्थानांगसत्र के चतर्थ स्थान में मांसाहार को नरगमन का एक प्रमुख कारण माना है। 14 क्योंकि मांस-भक्षण घोर हिंसा और पाप का कारण है।15 आगे के आचार्यों ने मांसाहार से होने वाली मानसिक, शारीरिक और नैतिक हानियों के संबंध में विस्तार से प्रकाश डाला है। वर्तमान संदर्भ में तो आज के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मांसाहार ही है। मांसाहार से पशुजगत्, वनस्पति और खनिजसंपदा के पर्यावरण का भी संकट पैदा हुआ है। अतः शाकाहार ही मनुष्य को प्रकृति से जोड़ सकता है। मनुष्य का भोजन जितना अधिक शाक, सब्जी, अन्न और फलों पर आधारित होगा उतना ही प्राकृतिक संपदा का संरक्षण होगा। प्रकृति को सुरक्षित बनाए रखने के लिए जैन आगमों में आहारचर्या के माध्यम से अनेक मार्ग सुझाए गए हैं। दशवैकालिकसूत्र में उदाहरण दिया गया है कि जैसे भ्रमर पुष्पों को नुकसान पहुंचाए बिना उनसे थोड़ा-थोड़ा रस लेकर अपना जीवन यापन करता है वैसे ही सच्चे साधु को इसी भ्रमरवृत्ति के द्वारा प्रकृति प्रदत्त शुद्ध भक्षणीय पदार्थों से अपना आहार ग्रहण करना चाहिए। वयं च वित्तिं लब्भामो न य कोइ उवहम्मई। ___अहागडेसु रीयंति पुष्फेसु भमरा जहा। । दशवै० 1/4 .... साधुओं के आहार की इस मधुकरीवृत्ति को गोचरी भी कहते हैं। इसका अर्थ है कि जैसे गाय, खेत में उगी घास को थोड़ा-थोड़ा अलग-अलग स्थानों से चरकर अपनी भूख मिटाती है उसी तरह साधु भी श्रावकों के लिए तैयार किए गए भोजन में से थोड़ा-धोड़ा अंश ग्रहण कर अपने जीवन का निर्वाह करते हैं। इन सब के मूल में जीवन-निर्वाह के लिए कम से कम हिंसा जिसमें हो उन पदार्थों को लेने की भावना छिपी हुई है। यही एक ऐसा मार्ग है जिसको अपनाने से प्रकृत्ति का संरक्षण हो सकता है। - अहिंसा भावना की साकार अभिव्यक्ति शाकाहार जीवन-शैली है। मनुष्य, पशु-पक्षी और वनस्पति इनमें अटूट संबंध है। मात्र भोजन के स्वाद के लिए प्रकृति के तालमेल को बिगाड़ना मूर्खता ही है। विश्व के खाद्य संकट और बढ़ती हुई आबादी की समस्या का समाधान सात्विक आहार एवं शाकाहार से प्राप्त हो सकता है। प्रोफेसर रामजीसिंह ने ठीक ही कहा है कि वैज्ञानिक, आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं सौन्दर्यबोध की दृष्टि से शाकाहार ही श्रेयस्कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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