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आगम-प्रणीत आहारचर्या और शाकाहार
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डॉ० श्रीमती कल्पना जैन जैन आगम प्राचीन भारतीय संस्कृति और जीवन व्यवहार के आधार ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में धर्म, दर्शन और योग-साधना का जितना विवेचन है उतना ही दैनिक जीवन और खानपान, रहन-सहन आदि के नियमों का भी। जैन आगमों में वर्णित भारतीय समाज का चित्रण प्रो. जगदीशचन्द्र जैन ने अपनी पुस्तकों में किया है।' अन्य कई विद्वानों ने भी जैन आगमों की शोधपरक व्याख्या की है। जैन आगमों के कई संस्करण प्रकाशित हुए हैं, जिनमें पूज्य युवाचार्य श्री मधुकरमुनि महाराज सा. द्वारा सम्पादित एवं ब्यावर से प्रकाशित जैनागम वर्तमान में सहज उपलब्ध हैं। इन आगमों में विचार की शुद्धता के साथ आहार की शुद्धता पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। जैन साधुओं का जीवन सात्विक और आसक्ति रहित होता है। अतः उनके आहार इत्यादि नियमों का वर्णन करते समय इन ग्रन्थों में शुद्ध और सात्विक आहार का विवेचन प्राप्त होता है। आचारांगसूत्र, दशवैकालिकसूत्र और उत्तराध्ययनसूत्र आदि ग्रन्थों में साधु की भिक्षाचर्या के प्रसंग में आहार संबंधी विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। उन सबका यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाय तो शाकाहार एवं पर्यावरण-संरक्षणादि के संबंध में अनेक नए तथ्य प्राप्त होते हैं।
जैन आगमों में वर्णित आहार-व्यवस्था शुद्धता के साथ-साथ अहिंसा पर भी आधारित है। साधु-जीवन का मुख्य लक्ष्य पूर्ण अहिंसा का पालन रहा है। अतः उनके लिए उसी आहार और विहार की स्वीकृति थी, जिसमें किसी भी प्राणी की हिंसा का प्रसंग न हो। आहार की यही व्यवस्था श्रावकों के लिए भी जैन आगमों में वर्णित है। उसमें केवल उनके गृहस्थजीवन के अनुसार आंशिक रूप से व्रत पालन करने का विधान है।
___ आचारांगसूत्र के नवें अध्ययन उपधानश्रुत में भगवान महावीर की जो तपश्चर्या का वर्णन है, उससे स्पष्ट होता है कि महावीर अपने भोजन के लिए किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देते थे। किसी भी प्राणी की आजीविका, आहार आदि में वे व्यवधान नहीं डालते थे पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायकाय, बीजयुक्त हरियाली और त्रसकाय-इन सबको चेतनावान् मानकर उनकी रक्षा करते हुए वे आहार और विहार करते थे। यथा
पुढविं च आउकायं, तेउकायं च वाउकायं च। पणगाई वाय-हरियाई, तसकाय च सव्वसो णच्चा।।
एयाई संति पडिलेहे, चित्तमंताई से अभिण्णाय। परिवज्जिया ण विहरित्था, इति संखाए से महावीरे।।
__ आचारंग सूत्र 9/1/22-23 उत्तराध्ययनसूत्र में आहार-संबंधी अनेक नियमों का वर्णन है। शुद्ध और परिमित भोजन का संयम की साधना और प्राणों की रक्षा के लिए लेने का विधान है। यदि संयम की पालना न होती हो तथा उपसर्ग आ जाए तो भोजन को छोड़ देने का विधान है। इसी प्रसंग में यह भी कहा गया है कि प्राणियों की दया के लिए भिक्षु भक्तपान की गवेषणा न करे।' इसका आशय यह है कि प्राणियों की रक्षा भोजन से अधिक महत्वपूर्ण मानी गई है। उत्तराध्ययनसूत्र के पैतीसवें अध्ययन में स्पष्ट कहा गया है कि भोजन-पानी की व्यवस्था करने और करवाने में अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। जल, धान्य, पृथ्वी, काष्ठ के आश्रित अनेक जीवों का भोजन पकवाने में हनन होता है। इसलिए साधु अपने लिए भोजन पकाने और पकवाने का कार्य न करे। इस विधान के पीछे भी प्राकृतिक साधनों की सुरक्षा का उद्देश्य है।'
सी ग्रंथ में निष्कर्ष रूप में कहा गया है कि साधु भोजन के लिए लोभी, रसों में आसक्त और मूर्छित न हो। वह रसों के स्वाद के लिए भोजन न खाए। केवल जीवन-निर्वाह के लिए आहार ग्रहण करे। यथा
अलोले न रसे गिद्धे, जिब्भादन्ते अमुच्छिए।
न रसट्ठाए भुंजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी।। उत्तरा-35/17
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