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________________ लोकजीवन की प्राचीन भाषा की रक्षा के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी कमलकिशोर जैन हिन्दी के मूल स्त्रोत-अपभ्रंश साहित्य के पठन-पाठन और शोध की नियमित व्यवस्था के लिए पूरे भारत देश में जो अभिनव प्रयोग गत पांच वर्षों से किया गया है, उसमें दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी का योगदान अद्वितीय है। इस तीर्थक्षेत्र समिति ने जैन साहित्य के शोध की ओर जो विशेष ध्यान दिया है, उसके फलस्वरूप जैनविद्या-संस्थान की स्थापना हुई है और अब उसका उल्लेखनीय कार्य बढ़ रहा है। साहित्य एवं संस्कति की रक्षा के लिए जैनविद्या-संस्थान के अन्तर्गत अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जा रहे हैं उनमें अपभ्रंश साहित्य अकादमी के कार्य अपने आप में विशेष ही नहीं, अपितु भारत में अपने प्रकार का एक नया प्रयोग है। प्राचीन साहित्य की रक्षा और उसका प्रकाश देने में अपभ्रंश साहित्य अकादमी के कार्य और योजनाएं पूरे भारत में अपने ढंग की अनोखी ही नहीं है, बल्कि साहित्य सृजन में उपयोगी भी हैं। इस अकादमी ने अपनी कुछ वर्षों की स्थापना के बाद उल्लेखनीय प्रगति की है। जयपुर नगर के चहल-पहल वाले क्षेत्र नारायणसिंह सर्किल पर पश्चिम की ओर एक विशाल परिसर भट्टारकजी की नसियां के नाम से विख्यात है। यह परिसर जयपुर नगर के अधिकांश सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया है। इसी विशाल परिसर में जैन भवन की पहली मंजिल पर साहित्य व शोध के लिए जो अध्ययनशील कार्य बिना किसी दिखावे और प्रदर्शन के शांति से किए जा रहे हैं वहीं अपभ्रंश साहित्य अकादमी की गतिविधियां हैं। यहां कतिपय जाने-माने साहित्य प्रेमी व विद्वान् अपने कुछ सहयोगियों के साथ गत कुछ वर्षों से अपभ्रंश भाषा के अध्ययन और अध्यापन के कार्य में लगे हुए हैं। इस महत्वपूर्ण कार्य की ओर अब तक शासन और समाज दोनों प्रायः उदासीन रहे हैं लेकिन अब अपभ्रंश साहित्य अकादमी के प्रयासों से पठन-पाठन का कार्य योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ता हआ गति ले रहा है। इस अभिनव कार्य से यह संकेत मिलता है कि जैन साहित्य, कला और संस्कति व आचार-विचार को सुरक्षित रखने एवं परिपुष्ट करने के पवित्र उद्देश्य से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी की प्रबन्धकारिणी समिति सक्रिय है। श्री महावीरजी समिति के जैनविद्या-संस्थान के साथ-साथ उसी के अन्तर्गत अपभ्रंश अकादमी के कार्य भी इस भाषा के प्रचार-प्रसार की महत्वपूर्ण गतिविधियां हैं। ___अपभ्रंश साहित्य, हिन्दी साहित्य का मूल स्त्रोत है। अतः अपभ्रंश का अध्ययन हिन्दी भाषा व साहित्य की विकास श्रृंखला के सम्पर्क परिचय में सहायक है। अपभ्रंश, संस्कृत, प्राकृत से हिन्दी तक की शब्द यात्रा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसके अध्ययन से शब्दों के ध्वनि- परिवर्तन तथा हिन्दी शब्दों की व्युत्पत्ति को समझना सहज हो जाता है। कालावधि में खोये अनेक काव्य रूपों के स्त्रोत, व्याकरणिक आधार, परम्पराएं, कवितार्थ, पारिभाषिक शब्दावलियां अपभ्रंश में सुरक्षित हैं। इससे हिन्दी का आदिकालीन साहित्य एवं सूर-तलसी आदि का मध्यकालीन भक्ति-साहित्य अधिक स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन काल में हमारे देश की रचनाएं प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत भाषा में विभिन्न काल में की गई हैं। यह समझना उचित होगा कि आधुनिक भारतीय भाषाओं की एक मूल भाषा अपभ्रंश है। वैदिक भाषाओं में प्राकृत और अपभ्रंश का महवपूर्ण स्थान है। वैदिक भाषा की ही एक नहर संस्कृत भाषा भी है। जैन संस्कृति में श्वेताम्बर समाज के अधिकांश ग्रंथ प्राकृत में हैं जबकि दिगम्बर समाज का साहित्य अपभ्रंश में अधिक है। तीर्थंकरों में भगवान महावीर ने प्राकृत का उपयोग किया और आचार्य कुन्दकुन्द ने भी प्राकृत भाषा को ही अपनाया। आचार्यों ने सभी रचनाएं अधिकांशतः प्राकृत में रची, लेकिन गृहस्थों का अधिक साहित्य अपभ्रंश में मिलता है। दक्षिण भारत में दिगम्बर समाज की अधिक रचनाएं संस्कृत में हुई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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