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में दिखाया गया है। केवल श्वेताम्बर परम्परा में ही मल्लिनाथ का उल्लेख नारी तीर्थंकर के रूप में हुआ है। अतः मथुरा की यह मूर्ति इस स्थल में श्वेताम्बर परम्परा की विद्यमानता को भी स्पष्ट करती है। जिन मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्यों, लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों का नियमित अंकन हुआ है। ये मूर्तियां प्रतिमालक्षण की दृष्टि से पूर्ण विकसित कोटि की हैं। जिनों के साथ बने यक्ष-यक्षी वैयक्तिक विशिष्टताओं वाले पारम्परिक या व्यक्तिगत विशिष्टताओं से रहित हैं। मुनिसुव्रत की 11वीं शती ई० की एक मूर्ति में परिकर में वस्त्राभूषणों से सज्जित और कायोत्सर्ग में खड़े जीवन्तस्वामी की भी दो लघु मूर्तियां बनी हैं। जैन परम्परा में जीवन्तस्वामी स्वरूप महावीर के उस स्वरूप का सूचक है, जिसमें दीक्षा लेने से पूर्व महावीर ने राजमहल में ही वस्त्राभूषणों से युक्त एक राजकुमार के रूप में तपस्या की थी। महावीर के ऐसे स्वरूप की मूर्ति को जीवन्तस्वामी संज्ञा दी गई। राज्य संग्रहालय लखनऊ में ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली की भी एक कायोत्सर्ग मूर्ति है।
स्वतंत्र जिन मूर्तियों के अतिरिक्त मथुरा में जिन चौमुखी एवं स्वतंत्र यक्ष-यक्षी मूर्तिया भी बनीं। इनमें सर्वानुभूति यक्ष चक्रेश्वरी, अंबिका तथा पद्मावती यक्षियों की कई मूर्तियां हैं। ये क्रमशः ऋषभनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की यक्षियां हैं। अन्यत्र भी इन्हीं यक्षियों की सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। इनमें मथुरा संग्रहालय की दशभुजा चक्रेश्वरी (B-6) की स्थानक और द्विभुजा अंबिका (डी-6) की आसीन मूर्तियां शिल्प तथा प्रतिमालक्षण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं। दशभुजा चक्रेश्वरी की मनोज्ञ मूर्ति में सभी अवशिष्ट करों में चक्र हैं। अंबिका मूर्ति में ऊपर की ओर नेमिनाथ और बलराम-कृष्ण, तथा पीठिका छोरों पर गजमुख गणेश और कुबेर की मूर्तियां बनीं हैं। अंबिका मूर्ति प्रतिमालक्षण की दृष्टि से दुर्लभ विशेषताओं वाली है।
डी० 51/164 B, सूरजकुण्ड
वाराणसी-221010
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