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अपभ्रंश साहित्य की ही यह उपलब्धि है कि इसके द्वारा तत्कालीन देश की सामाजिक व सांस्कृतिक एकता सुदृढ़ हुई है। भक्ति आन्दोलन में भी अपभ्रंश का अधिक उपयोग हुआ है। सातवीं से दसवीं शताब्दी तक पूरे देश की राष्ट्रीय भाषा एक प्रकार से अपभ्रंश ही थी। उस समय सभी धर्मों व जातियों की रचनाएं अपभ्रंश में की गई। इसलिए यह कहना उचित ही होगा कि लोक-जीवन का दिग्दर्शन कराने वाली उस समय की भाषा अपभ्रंश ही थी। अपभ्रंश का ही एक रूप हिन्दी है। ज्ञान-दान और दर्शनशास्त्र-दान का कार्य अधिकांशतः अपभ्रंश में भी काफी हुआ है। बताया गया है कि पूरे देश में अपभ्रंश की कई हजार से भी अधिक पांडुलिपियां उपलब्ध हैं। जयपुर के शास्त्रभण्डार इसमें काफी मूल्यवान हैं। पूरे भारत का आधा अपभ्रंश साहित्य राजस्थान में और राजस्थान का आधा साहित्य जयपुर में है या यों कहिए कि भारत का एक चौथाई अपभ्रंश-साहित्य जयपुर में है और इसमें से भी यानि 250 ग्रंथों में से अधिकांश ग्रथ श्री महावीरजी क्षेत्र की धरोहर हैं। प्राचीनतम ग्रंथ 1400 ईसवीं का स्वयं-भू श्रीमहावीरजी क्षेत्र की निधि है। श्री महावीरजी क्षेत्र से अनेक ग्रंथ प्रकाशन को बाहर भी गए हैं। यह हर्ष की बात है कि अपभ्रंश भाषा का 70 प्रतिशत साहित्य जैन संस्कृति से संबंधित है। इसमें भी दिगम्बर जैन साहित्य की बहुलता है। यह कहना उचित प्रतीत होता है कि अपभ्रंश भाषा का अध्ययन-अध्यापन राष्ट्रीय चेतना के जागरण के लिए आवश्यक कदम है। सरहपा, स्वयंभू, अभिनवगुप्त, अब्दुल रहमान, विद्यापति जैसे महान् कवियों ने इसके साहित्य का सृजन किया है। जायसी, सूर, तुलसी, पद्माकर, बिहारी आदि यशस्वी कवियों ने अपभ्रंश की गौरवमय परम्परा को आत्मसात किया है। इसकी कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। विद्वानों का मत है कि अपभ्रंश भाषा के अध्ययन-अध्यापन से क्षेत्रीय भाषायी संघर्ष समाप्त हो सकता है। ख्यातिप्राप्त विद्वान् डॉ० कात्रे के अनुसार “अपभ्रंश जन भाषा रही है। उसका सम्बन्ध सामन्त और उच्चवर्ग से कम रहा है। अतः यह भारतीय संस्कृति के सच्चे रूप की परिचायक है और आज के लोकतन्त्र की वृद्धि में विशेष सहायक है।" यह तथ्य निर्विवाद है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी का मूलस्त्रोत होने का गौरव अपभ्रंश को प्राप्त है। राजस्थान भाषा व अन्य प्रान्तीय भाषाओं के साहित्य को अपभ्रंश के आधार के बिना समझना अत्यन्त कठिन है। इस तरह से राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर ही “अपभ्रंश साहित्य अकादमी" की विधिवत् स्थापना की गई है।
इस अकादमी में अनेक विभाग कार्यरत हैं-जैसे भाषाविभाग, पाण्डुलिपिसंग्रहविभाग, प्रकाशनविभाग, अपभ्रंशविस्तारविभाग, पुस्तकालयविभाग, विक्रयविभाग, परीक्षाविभाग आदि-आदि। लेकिन और भी अन्य विभाग धीरे धीरे विकसित किये जाने हैं। इस अकादमी में अपभ्रंश भाषा के अध्यापन की समुचित व्यवस्था है। पांच माह का अपभ्रंश सर्टिफिकेट कोर्स और पांच माह का अपभ्रंश डिप्लोमा कोर्स यहां विधिवत निःशुल्क चलाये जाते हिन्दी-राजस्थानी के प्राध्यापकों को अपभ्रंश भाषा का प्रशिक्षण निःशुल्क प्रदान किया जाता है। प्रदेश में बिखरी अपभ्रंश की पांडुलिपियों को फोटोस्टेट कराकर अकादमी के पांडुलिपि संग्रह विभाग में रखा जा रहा है, जिससे शोधकर्ताओं को सारी सामग्री एक ही जगह उपलब्ध हो सके। अपभ्रंश भाषा को सरलरूप में सीखा जा सके, इस
शि-रचना सौरभ व अपभ्रंश-काव्य सौरभ प्रकाशित है। अपभ्रंश साहित्य अकादमी के मुखपत्र के रूप में "अपभ्रंश भारती" शोधपत्रिका प्रकाशित की जा रही है। अपभ्रंश के ज्ञान के लिए पत्राचार रहा है।
दर्शनशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान् और उदयपुर के सुखाड़िया विश्वविद्यालय के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर डॉ. कमलचन्द सौगानी के अवैतनिक रूप से इस अकादमी के निदेशक का कार्यभार (1988 की दीपावली से) सम्भाल लेने से इस कठिन किन्तु साहित्य के कल्याणकारी कार्य को हाथ में लेने से जो दिशा निर्देश इस क्षेत्र में मिलने लगा है, वह बेजोड़ है। आरम्भ में जैनविद्या-संस्थान के संयोजक श्री ज्ञानचन्द खिन्दूका का भी क्रियाशील सहयोग रहा है। श्री खिन्दूका के इस पद से त्याग-पत्र के बाद डॉ० सौगानी को ही विद्या-संस्थान के संयोजक का भार स्वीकार करना पड़ा। श्रीमहावीरजी क्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष श्री नरेश कुमार सेठी (भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी)
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