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________________ चरित्र का मेरुदण्ड है- -आत्मशक्ति का संचय । इस आत्म-शक्ति के संचय और संवर्धन के लिए इन्द्रियों को विषय-कषायों से अलग हटा कर अहिंसा, संयम और तप-मार्ग में प्रवृत्त करना आवश्यक है। महासती राजमती का आदर्श आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है । उग्रसेन की पुत्री राजमती से विवाह करने के लिए बरात सजाकर आने वाले नेमिनाथ जब बाड़े में बंधे पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर राजमती से बिना विवाह किये ही मुंह मोड़ लेते हैं। तब राजमती विरह-विदग्ध होकर विभ्रान्त नहीं बनती वरन् विवेकपूर्वक अपना गन्तव्य निश्चित कर साधनामार्ग पर अग्रसर होती है। जब नेमीनाथ के छोटे भाई, रथनेमि मुँनि अवस्था में उस पर आसक्त होकर अपने संयमपथ से विचलित होते हैं तो वह सती-साध्वी राजमती उन्हें उद्बोधित करती हुई कहती हैं। धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे । उत्तराध्ययन सूत्र 22 /43 हे अपयश के अभिलाषी ! तुझे धिक्कार है, जो तू असंयम रूप जीवन के लिए वमन किये हुए, त्यागे हुए कामभोगों को पुनः ग्रहण करने की इच्छा करता है। इसकी अपेक्षा तो तेरा मर जाना श्रेष्ठ है । संयमवती राजमती का उद्बोधन पाकर अंकुश से जैसे हाथी अपने स्थान पर आ जाता है वैसे ही वह रथनेमि भी चरित्र - धर्म में स्थिर हो जाता है। तपस्या में लीन बाहुबली के अभिमान को चूर करने वाली उनकी बहिनें भगवान ऋषभदेव की दो पुत्रियां ब्राह्मी और सुन्दरी ही थीं। उनकी देशना में अहंकार में मदोन्मत बने मानव को निरहंकारी बनाने की प्रेरणा थी । उन्होंने बाहुबली से कहा वीरा म्हारा गजथकी नीचे उतरो, गज चढ्यां केवली न होसी । शास्त्रों में ऐसे कई उदाहरण आते हैं जहां माता और पत्नी के रूप में नारी अपने पुत्र और पति को धर्म-मार्ग से विचलित होने पर साधना में सुदृढ़ करने के लिए प्रेरणात्मक प्रतिबोध देती है । 'उपासकदशांग सूत्र' में वर्णन आता है कि चूलनी पिता श्रावक ने जब प्रतिज्ञा धारण कर पौषध व्रत किया, तब देव ने परीक्षा के निमित्त उसे कई प्रकार कष्ट दिये । अन्तिम उपसर्ग माता भद्रा के लिए था। तब मां की ममता और भक्ति के वशीभूत होकर उस देव रूप पुरुष को पकड़ना चाहा त्योंही देव लुप्त हो गया और उसके हाथ में खंभा आ गया । वह उसी को पकड़कर जोर-जोर से चिल्लाने लगा। उसकी चिल्लाहट सुनकर माता भद्रा वहां आई और कहने लगी- तेरी देखी घटना मिथ्या है। क्रोध के कारण उस हिंसक और पाप-बुद्धि वाले पुरुष को पकड़ लेने की तुम्हारी प्रवृत्ति हुई है, इसलिए भावना से अहिंसा - व्रत का भंग हुआ है । इसलिए हे पुत्र ! तुम दंड प्रायश्चित लेकर अपनी आत्मा को शुद्ध करो । कौन नहीं जानता कि नारी पुरुष के लिए शक्ति और प्रेरणा स्रोत रही है । इसलिए कहा गया है— जहाँ नारी की पूजा होती है वहां देवता रमण करते हैं । 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ।' यहां देवता का अर्थ देवी- सम्पदा और देवगुणों से है। नारी में वह शक्ति है कि वह आसुरीवृत्ति को देवी- सम्पदा में बदल सकती है। बीज को अपने सुसंस्कारों का खाद और पानी देकर कल्याणकारी मांगलिक वट-वृक्ष के रूप में विकसित कर सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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