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________________ मथुरा की जैन कला डॉ० मारूति नन्दन प्रसाद तिवारी मथुरा में शुंग युग (ल0 1500 ई० पू०) से मध्य युग(1023 ई०) तक जैन मूर्ति-सम्पदा का वैविध्यपूर्ण भण्डार प्राप्त होता है जिसमें जैन प्रतिमाविज्ञान के विकास की प्रारम्भिक और परवर्ती अवस्थाएं देखी जा सकती हैं। मूर्तिकला की सम्पूर्ण विकास श्रृंखला यदि किसी एक स्थल पर अभिव्यक्त हुई तो मथुरा में ही। जैन कला के इतने लम्बे इतिहास और विकास श्रृंखला वाला दूसरा स्थल भारत में नहीं है। जैन परम्परा में मथुरा की प्राचीनता सातवें तीर्थंकर (या जिन) सुपार्श्वनाथ के समय तक प्रतिवादित की गई है, जहां कुबेरा देवी ने सुपार्श्वनाथ की स्मृति में एक स्तूप का निर्माण करवाया था। 14वीं शती के जैनग्रंथ “विविधतीर्थ कल्प" में उल्लेख है कि 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में (ल० 8वीं शती ई० पू०) सुपार्श्वनाथ के स्तूप का विस्तार और पुनरुद्धार हुआ था। ल० 8वीं शती ई० में बप्पभट्टि सूरि ने उसी स्तूप का पुनः जीर्णोद्धार करवाया था। इस परवर्ती साहित्यिक परम्परा की कुषाणकालीन तथा कुछ मध्ययुगीन मूर्ति लेखों से पुष्टि होती है, जिनमें उन मूर्तियों के देवनिर्मित स्तूप में स्थापित होने का उल्लेख है। संभवतः जैन स्तूप के अत्यंत प्राचीन होने और उसकी निर्माण-तिथि के निश्चयात्मक ज्ञान के अभाव में ही लेखों में उसे देवनिर्मित कहा गया। मथुरा में शुंग-कुषाण काल में जैन कला के विविधतापूर्ण अग्रगामी विकास की पृष्ठभूमि में स्थानीय शासकों, व्यापारियों एवं सामान्य जनों का समर्थन प्रमुख रहा है। मथुरा से प्राप्त तीनों प्रमुख सम्प्रदायों की मूर्तियों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि राजकीय संरक्षण के अभाव में भी जैन मूर्तियों की संख्या बौद्ध एवं हिन्दू मूर्तियों की तुलना में कम नही है। एक लेख में ग्रामिक जयनाग की पली सिंहदत्ता द्वारा एक आयागपट दान करने का उल्लेख है। कछ जैन मर्ति-लेखों में ब्राह्मणों के भी उल्लेख हैं। मथुरा के लेखों से जैन मूर्तिनिर्माण में स्त्रियों के योगदान का भी ज्ञान होता है। जैन लेखों में आये अकका, ओघा, ओखरिका जैसे स्त्री नाम विदेशी मूल के प्रतीत होते हैं। कुषाण . शासन में आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था के कारण व्यापार को पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। देश और विशेषतः विदेशों से होने वाले व्यापार में व्यापारियों एवं व्यवसायियों ने प्रभूत धन अर्जित किया, जिसे उन्होंने धार्मिक स्मारकों एवं मूर्तियों के निर्माण में भी लगाया। जैन ग्रन्थों में मथुरा का प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र के रूप में उल्लेख है जो वस्त्र-निर्माण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण था। कुषाण काल में मथुरा के जैन समाज में व्यापारियों एवं शिल्पकर्मियों की प्रमुखता की पुष्टि जैन मूर्तियों पर उत्कीर्ण अनेक लेखों से होती है जिनसे जैनधर्म एवं कला में उनका योगदान भी स्पष्ट है। जैन मूर्ति लेखों में श्रेष्ठिन्, सार्थवाह, गन्धिक आदि के अतिरिक्त सुवर्णकार, वर्धकिन् (बढ़ई) लोहकर्मक्, नाविक (प्रातारिक) वेश्याओं, नर्तकों आदि के अनेक उल्लेख हैं। कुषाणों के बाद गुप्तों एवं विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों ने मथुरा पर शासन किया। भिन्न राजनीतिक मानचित्र और परिस्थियों के कारण कुषाण काल के बाद मथुरा में काफी कम मूर्तियां बनीं और विषय-वस्तु की दृष्टि से भी उनकी विविधता समाप्त हो गई। चौथी शती ई० के प्रारम्भ या कुछ पूर्व आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में जैन-आगमसाहित्य के संकलन हेतु द्वितीय वाचन भी हुआ। साहित्यिक और आभिलेखिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मथुरा का कंकाली टीला एक प्राचीन जैन स्तूप था। जैन-परम्परा के अनुसार इसका निर्माण सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के समय में हुआ था। "देवनिर्मित' लेख वाली मूर्तियां भी कंकाली टीले से ही मिली हैं। यहां से एक विशाल जैन स्तूप के अवशेष और विपुल शिल्प-सामग्री मिली है। मथुरा की शिल्प सामग्री में आयागपट, जिन मूर्तियां, सर्वतोभद्रिका प्रतिमा, जिनों के जीवन से संबंधित दृश्य एवं कुछ अन्य मूर्तियां प्रमुख हैं। कुषाण काल में जिनों की ही सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। ज्ञातव्य है कि जिन या तीर्थकर ही जैनों के प्रमुख आराध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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