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किया। जो महारानियां राजप्रसादों में विभिन्न प्रकार के हारों, रत्नाभूषणों से शरीर सजाती थीं वे जब साधना-पथ पर बढ़ी तो कनकावली, रत्नावली आदि विविध प्रकार की तपचर्या के हारों को धारण करके अपनी आत्मज्योति चमकाने लगी।
जननी, पत्नी, भगिनी और पुत्री रूप में नारी सदैव पुरुषों के लिए प्रेरणा रही है। उत्तराध्ययन सूत्र के "इषुकारीय' अध्ययन में भृगपुरोहित का वर्णन आता है। भगपुरोहित अपने दो पुत्रों के वैराग्य से प्रभावित होकर. अपनी पत्नी यशा के साथ दीक्षा ले लेता है। जब इषुकार राजा ने उसकी सम्पदा को अपने भण्डार में लाकर जमा कराने की आज्ञा दी और महारानी कमलावती को इस बात का पता चला तो उसने राजदरबार में उपस्थित होकर राजा की धन-लिप्सा और मोह-निन्दा को भंग किया और उसे साधना-पथ का पथिक बनाया। रानी के ये शब्द कितने प्रेरक और मर्मस्पर्शी हैं :
सव्वं जगं जह तुहं, सव्वं वावि धणं भवे ।
सव्वं विते अपजतं, णेव ताणाय तव। 14/39 हे राजन् । यदि यह सारा जगत् तुम्हारा हो जाय अथवा संसार का सारा धन तुम्हारा हो जाय तो भी ये सब तुम्हारे लिए अपर्याप्त हैं। यह धन जन्म-मृत्यु के कष्टों से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकता है।
जब तक धर्म मूलक चरित्र का हृदय में निवास नहीं होगा तब तक विश्व में सुख-शान्ति और एकता की स्थापना नहीं होगी। किसी ने ठीक ही कहा है— हृदय में धर्म का निवास होने से चरित्र में सौन्दर्य का वास होगा, चरित्र में सौन्दर्य का वास होने से घर में सामंजस्य का विस्तार होगा। घर में सामंजस्य का विस्तार होने से राष्ट्र में एकता का प्रसार होगा। राष्ट्र में एकता का प्रसार होने से विश्व में शान्ति का संचार होगा। पर आज नारी-समाज का ध्यान चरित्र-सौन्दर्य के बजाय शरीर-सौन्दर्य पर अधिक टिका हुआ है। शरीर-सौन्दर्य को निखारना एक सीमा तक आवश्यक हो जाता है, पर आज सौन्दर्य के नाम पर जिस कृत्रिम भौंडेपन का प्रदर्शन किया जा रहा है, वह बजाय आकर्षण के वितृष्णा पैदा करने वाला है। अब तो सौन्दर्य प्रसाधनों के नाम पर हिंसा और क्रूरता का रक्त मिला दिखाई देता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि सुन्दर दिखने के लिए जिन सौन्दर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है, तथा जिन चीजों का प्रयोग आभिजात्य मानदण्डों के रूप में किया जाता है, उनके लिए हजारों प्राणी प्रतिदिन क्रूरतापूर्वक बलि चढ़ाये जाते हैं।
बाजार में आने से पहले खरगोश की आंखों में डाल कर शैम्पू का परीक्षण किया जाता है। यह देखा जाता है कि उसकी आंखों में चिरमिराहट और खुजली तो नहीं मचती। जब यह प्रयोग किया जाता है तब खरगोश को एक ऐसे पिंजड़े में बंद किया जाता है जिसमें उसका सिर तो बाहर रहता है और शरीर पिंजड़े में। उसे इस तरह फिट कर दिया जाता है कि बेचारा खरगोश हिल भी नहीं सकता। शैम्पू की बूंदों से आंख में होने वाली जलन को वह विवशतापूर्वक सहन करता है। इस प्रकार के बार-बार के प्रयोगों से उसकी आंखों में छाले पड़ जाते हैं और वह अंधा हो जाता है। इसी तरह क्रीम और लोशन भी मार्केट में आने से पूर्व जानवरों की नोची हुई खाल पर अजमाये जाते हैं। इस भौतिक शरीर को मृत्यु के बाद जिसमें कीड़े पड़ने लगते हैं, बदबू आने लगती है, इत्र से महकाने के लिए सुगंधित इत्र का प्रयोग किया जाता है जो कस्तूरी से बनता है। यह कस्तूरी मृग तथा सिवेट नामक जानवरों की नाभि को चीरा लगाकर निकाली जाती है। उस समय जो मर्मान्तक वेदना इन मक-प्राणियों को कृत्रिम नश्वर सौन्दर्य के लिए दी जाती है, वह हमारे रोंगटे खड़े कर देने वाली है। इन रक्त-रंजित सौन्दर्य प्रसाधनों से सजी संवरी नारी क्या अपनी संतति में करुणा, दया, प्रेम और सहिष्णुता की भावना भर सकेगी। यह शारीरिक सौन्दर्य तो केवल भोगवृत्ति को बढ़ाने वाला है। जब तक इन भोगों से विमुख होकर संयम और शील का रास्ता नहीं अपनाया जाता, तब तक जीवन और समाज में आत्मिक सौन्दर्य का प्रकाश नहीं फूट सकता। व्यक्तित्व का आकर्षण एवं प्रभाव दूसरों को दुखी और पीड़ित करने से नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है दूसरों के दुख दूर कर उन्हें प्रसन्न एवं सुखी बनाने में।
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