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________________ चरित्रनिर्माण का अंग तभी बन सकती है जब उसके पीछे तप, त्याग विवेक और जीवन आस्था का सम्बल हो। आज तो स्थिति यह है कि सत्संग और स्वाध्याय में जो समय बीतना चाहिए वह अधिकांशतः सिनेमा और क्लबों तथा टी.वी. आदि देखने में व्यतीत होता है। धार्मिक ग्रंथों, रामायण, महाभारत, गीता, आगम आदि का स्थान फुटपाथ पर बिकने वाले सस्ते उपन्यासों ने ले लिया है। सूर, तुलसी, आनन्दघन, मीरा, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नरसी मेहता के पदों के बजाय कंठों में शराब, कबाब और प्रेम-मोहब्बत के सस्ते गीत थिरकते हैं। आंगन मे खेलता बच्चा जब तुतलाती वाणी में “मम्मी को डैडी से प्यार हो गया" गीत गाता है तो अजीब सा लगता है। कहां भक्ति के तपोवन की शकुन्तला और मीरा का पद “पग धुंघरू बांध मीरा नाची थी" और कहां आज युवक-युवतियां बेढंगे ढंग से डिस्को डांस करते देखे जाते हैं। उनके जीवन के आदर्श महावीर, चन्दना, राम, सीता, शिव-पार्वती, प्रताप, शिवा, तिलक, गांधी न होकर उनके आदर्श हैं-फिल्म के अभिनेता और अभिनेत्रियां । एक समय था जब घर में दादी, नानी, मां डिग्रीधारी पढ़ाई-लिखाई से दूर होकर बहुश्रुत होती थीं। उन्हें धर्म-ग्रंथों की अनेक प्रेरक कथाएं याद होती थीं। चौपाल में बैठकर अनेक प्रेरक कथाएं वे बालक-बालिकाओं को सुनाती थीं। इस प्रकार बातों ही बातों में वे बच्चों को भारतीय संस्कृति का ज्ञान और आदर्श, श्रावक-श्राविकाओं के संस्कार उनमें सहज रूप से भरा करती थीं। पर आज स्त्री-पुरुषों की शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार होने पर भी बच्चों को संस्कारित करने की वह पद्धति समाप्त हो चुकी है। जिन घरों में कुल-परम्परा के स्थानक, मन्दिर, उपाश्रय आदि धार्मिक स्थानों में जाने का तथा संत-सतियों के दर्शन एवं प्रवचन-श्रवण तथा सामाजिक, स्वाध्याय, जप-तप आदि अनुष्ठानों का क्रम किसी ने किसी रूप में जारी है वहां तो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में संस्कार-निर्माण की संभावनाएं बनी रहती हैं। पर जिन घरों अथवा परिवारों में इस प्रकार की धार्मिक-परम्परा नहीं है उनकी स्थिति बडी शोचनीय है। जब संस्कार प्रदाता माता-पिता में भी संस्कार-निर्माण की भूमिका नहीं है तो फिर उनकी संतानों में संस्कारों के बीज की क्या आशा की जा सकती है ? अतः यह आवश्यकता है कि श्रावक-धर्म धारण करने की भूमिका तैयार की जाए। "प्रवचनसारोद्धार' में धर्म को धारण करने के लिए व्यक्ति में 21 गुणों का होना आवश्यक बताया है। इन गुणों में व्यक्ति को क्षुद्र, सौम्यप्रकृति, अक्रूर, पाप भीरु, लज्जाशील, दयालु, माध्यस्थवृत्ति, साम्यदृष्टि, गुणानुरागी, सत्यनिष्ठ, सुदीर्घ दृष्टि, कृतज्ञ, परहितकारी, सेवाभावी होना आवश्यक बताया है। इन गुणों को धारण करने पर ही व्यक्ति में सम्यकदृष्टि का विकास हो पाता है और तब कहीं वह श्रावक-धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ग्रहण करने की ओर अग्रसर हो सकता है। आज अधिकांशतः स्थिति यह है कि हम श्रावक-धर्म के व्रत ग्रहण करना तो दूर रहा, उसकी भूमिका के रूप में जिन गुणों पारण करना आवश्यक है, उन्हें भी नहीं धारण कर पाते हैं। अतः घर और परिवार में ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता है कि हम पारम्परिक अनुष्ठानों को वैज्ञानिक स्वरूप देकर, जीवन-व्यवहार में रचनात्मक धरातल पर उतारें। __ चरित्र निर्माण के लिए परस्पर मानवीय सम्बन्धों का होना अति आवश्यक है। यदि मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम, सहानुभूति और विश्वास न हो और मनुष्य केवल मशीनों से ही भिड़ता रहे तो उसकी मानवीय चेतना का विकास कैसे होगा? इस मानवीय चेतना के विकास में धार्मिक परम्पराओं और अनुष्ठानों का विशेष महत्व रहता है और इन सबका निर्वाह करने वाली है—नारी। पत्नी रूप में नारी को विविध क्षेत्रों में कई काम करने होते हैं। वह पति की जीवन-संगिनी और सहधर्मिणी है। उसके लिए प्रेम-फुहार भी है और शक्ति की ललकार भी। कुल-मर्यादा और धर्मरक्षा की पालना के लिए वह सदा तत्पर रहती है। “अन्तकृद्दशांग" सूत्र में मगध के सम्राट् श्रेणिक की महाकाली, सुकाली आदि दस महारानियों का वर्णन है, जिन्होंने श्रमण भगवान महावीर के उपदेश से प्रतिशोध पाकर साधना-पथ स्वीकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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