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________________ हैं। उन्हें विविध कालों में हयूनत्सांग, फाहियान, अलबेरुनी तथा अनेक विदेशी प्राच्य विद्याविद् एवं पर्यटक विद्वान् यहां से उठाकर ले गए, जो आज जर्मनी, फ्रांस, लंदन, चीन, आस्ट्रेलिया, तिब्बत, भूटान, नेपाल, दक्षिण-पूर्व एशिया आदि के प्राच्य शास्रभंडारों में सुरक्षित हैं और अब जिनकी मूल प्रतियां उपलब्ध कर पाना हमारे लिए लगभग असंभव ही है। जैन साहित्य का मौलिक लेखन एवं अनुवाद श्रमण संस्कृति एवं साहित्य के प्रचार के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय संविधान में स्वीकृति सभी भारतीय एवं विश्व की प्रमुख भाषाओं में जैनधर्म के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित ग्रंथों की रचना कर उन्हें लागत मूल्य पर विक्रय किया जाए। इस साहित्य-लेखन को आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है। त्रेषठशलाकामहापुरुषों, ऐतिहासिक महापुरुषों, आचार्यों, समाज-सेवियों एवं जैन-विद्या के महामहिम लेखकों एवं विद्वानों से संबंधित बालोपयोगी सचित्र कथाओं तथा सरल भाषा में आकर्षक नयनाभिराम प्रकाशन। 2. विद्वानों एवं शोधकर्ताओं की दृष्टि से उच्चस्तरीय जैनधर्म-दर्शन एवं साहित्यिक ग्रंथों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन । उपलब्ध प्रकाशित कलापूर्ण सचित्र पांडुलिपियों का संपादन, अनुवाद एवं प्रकाशन । प्राचीन जैन साहित्य के आधार पर भारतीय इतिहास, संस्कृति, भूगोल, वैदेशिक व्यापार आदि विषयों का तुलनात्मक समीक्षात्मक अध्ययन । सभी जैन संप्रदायों के जैन साहित्य का परिचयात्मक बृहद् इतिहास । विश्व की प्रमुख भाषाओं में जैनधर्म के प्रमुख सिद्धांतों पर परिचयात्मक पुस्तकें एवं उनका सर्वोत्तम नयनाभिराम प्रकाशन । विश्व-वाङमय के विकास में जैन लेखकों का योगदान पर विशिष्ट सांगोपांग ग्रंथ-लेखन । 8. विश्व संस्कृति, सभ्यता एवं विचारधारा के विकास में जैनाचार्यों का योगदान । लुप्त-विलुप्त एवं अनुपलब्ध साहित्य ___हमारे कुछ इतिहासकार बतलाते हैं कि द्वादशांगवाणी में से दृष्टिवादांग लुप्त हो गया है। आचार्य समन्तभद्र कृत गंधहस्तिमहाभाष्य लुप्त हो गया और मध्यकालीन ग्रंथ-प्रशस्तियों में वर्णित शताधिक ग्रंथ एवं ग्रंथकार लुप्त अथवा विस्मृत हो गए। आखिर वे गए कहां ? मेरी दृष्टि से उन सभी को एकमुश्त रूप में लुप्त अथवा विलुप्त घोषित कर देना एक बड़ी भारी ऐतिहासिक भूल होगी। मेरी दृष्टि से उनमें से अधिकांश ग्रंथ भले ही अनुलब्ध हो गए हों, किंतु वे सर्वथा नष्ट-विनष्ट अथवा लुप्त-विलुप्त नहीं हए होंगे। ये पांडलिपियां हमारे आचार्यों के चिंतन एवं साधना की प्रतीक तथा ज्ञान-विज्ञान की भंडार एवं पूर्वजों के विकसित ज्ञान की अमूल्य धरोहर हैं। अतः इस बात की आवश्यकता है कि देश तथा विदेशों के शास्त्र-भंडारों में उपलब्ध एवं सुरक्षित सभी जैन पांडुलिपियों के विधिवत् सूचीकरण एवं मूल्यांकन की व्यवस्था की जाए। हमें विश्वास है कि इस प्रक्रिया से हमारे अधिकांश विलुप्त घोषित गौरव-ग्रंथों के उपलब्ध होने की संभावना है। इस क्षेत्र में जैन समाज के समस्त श्रीमानों एवं धीमानों के समर्पित सहयोग से ऐतिहासिक मूल्य का यह कार्य यदि सम्पन्न हो सके, तो 21वीं सदी के जैन समाज की यह एक ऐतिहासिक देन मानी जाएगी। नवीन पीढ़ी को पांडुलिपियों का प्रशिक्षण आवश्यक यह कार्य बड़ा ही धैर्यसाध्य, समयसाध्य एवं व्ययसाध्य है। इस कठिन कार्य में सर्विस की गारंटी भी नहीं, इसीलिए नई पीढ़ी इस क्षेत्र में कार्य करना पसंद नहीं करती किंतु यदि उन्हें निःशुल्क प्रशिक्षण, पूर्ण-सम्मान तथा . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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