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भी उसी भाषा में सैकड़ों ग्रंथ लिखे, जिनमें दर्शन, सिद्धांत एवं अध्यात्म के साथ-साथ इतिहास, संस्कृति एवं ज्ञान-विज्ञान की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। योरूपीय विद्वानों-हर्मन जैकोबी, लास्सेन, ग्लाजनिप, आल्सडोर्फ आदि ने उसका मूल्यांकन कर उसे विश्व वाङ्मय की अमूल्य निधि बताया। इसमें संदेह नहीं कि योरूपीय प्राच्चविद्याविदों ने प्राकृत एवं जैन साहित्य पर शोध कार्य करने में हमारा मार्गदर्शन किया। यह उस समय की घटना है जब विदेशों में जैन-समाज नहीं था।
सौभाग्य से आज विश्व के कोने कोने में जब जैनियों का निवास हो गया है तो उनका यह विशेष कर्त्तव्य हो जाता है कि वे उसके प्रचार-प्रसार का कार्य करें। उन्हें चाहिए कि वे अपने ग्राम-नगरों में जैन पाठशालाएं खोलें, इनके साथ-साथ अपने-अपने यहां के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में भी प्राकृत भाषा एवं जैनधर्म के अध्ययन एवं शोध की व्यवस्था कर अपने-अपने बच्चों को उसका अध्ययन करावें। दृढ़ संकल्पों के साथ यदि यह प्रयत्न किया जाए तो उक्त कार्य कठिन नहीं होगा। इस व्यवस्था से सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि विदेशों में सुरक्षित जैन पांडुलिपियों एवं पुरातात्विक सम्पत्ति का सूचीकरण हो सकेगा, उसकी सुरक्षा एवं सही मूल्यांकन भी हो सकेगा। उच्चस्तरीय स्वतंत्र जैन प्रयोगशाला की स्थापना
प्राचीन जैन साहित्य की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हमारे आचार्यों ने बिना किसी भौतिक प्रयोगशाला के ही अपनी आध्यात्मिक दिव्यशक्ति के बल पर विश्व-सरंचना के कारणभूत षद्रव्यों की जो चर्चा की है, वह वैज्ञानिक दृष्टि से अद्भुत है। हमारे कुछ जैन-वैज्ञानिकों ने पुद्गल-परमाणु के विशेष अध्ययन-क्रम में वर्तमान Atomic Theory of Relativily, Theory of Soul and Non-soul तथा तैजस एवं कार्माण शरीर की अवस्थिति, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल-द्रव्यों का वर्तमान भौतिक एवं रसायनाशास्त्र के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया है तथा उनसे उत्साहवर्धक नतीजे निकाले हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित वैज्ञानिक तथ्यों का अंग्रेजी तथा विश्व की प्रमुख भाषाओं में अनुवाद कराकर उसे संसार के उच्चश्रेणी के समस्त वैज्ञानिकों, को एवं उनकी प्रयोगशालाओं को उनके तुलनात्मक अध्ययनार्थ भेजा जाए और उनसे उनके प्रयोगों तथा निष्कर्मों को प्रकाशित करने का निवेदन किया जाए। इसके अतिरिक्त एक ऐसी उच्चस्तरीय स्वतंत्र जैन प्रयोगशाला की स्थापना की आवश्यकता है जिसमें जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित षद्रव्यवस्था का आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों के साथ तुलनात्मक प्रायोगिक अध्ययन एवं शोध कार्य किया जा सके। यदि ऐसी व्यवस्थाएं होती हैं तो जैन समाज का विश्व-विज्ञान के क्षेत्र में 21वीं सदी की एक बड़ी भारी देन माना जाएगा। शास्र-लेखन परंपरा एवं लेखन के उपकरण ___ हमारे ऋषि, मुनि, आचार्यों ने जिनवरों की वाणी को कंठ-परंपरा से सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया, फिर भी अनेक कारणों से जब वह क्रमशः लुप्त होने लगी तब परवर्ती आचार्यों ने अवशिष्टांश को लेखन-सामग्री के पर्याप्त विकसित न होने पर भी बड़ी कठिनाईपूर्वक भोजपत्रों, ताड़पत्रों एवं कर्गल-पत्रों पर प्राकृतिक रंगों एवं लोहे की लेखनी से ब्राहमी तथा खरोष्ठी लिपियों में लिपिबद्ध किया और उसे बड़े ही यत्नपूर्वक गुफागृहों में सुरक्षित रखा। दुभाग्य से वे प्राचीनतम प्रारंभिक प्रतियां आज उपलब्ध नहीं है। उनके आधार पर बाद में जो प्रतिलिपियां की गईं उनमें से उपलब्ध कुछ इलिपियां आज देश-विदेश के प्राच्य-शास्त्रभंडारों में सुरक्षित हैं, जो अधिकांशतः 11वीं सदी से 16वीं सदी के मध्य की हैं। हमारी अमूल्य धरोहर : पांडुलिपियां ___यहां पांडुलिपियों के निर्माण एवं उनमें प्रयुक्त लेखन-सामग्री आदि के इतिहास के वर्णन का अवसर नहीं है। यहां तो मैं केवल यही बतलाना चाहता हूं कि भारतीय-सर्वेक्षण के अनुसार विदेशों में जैन एवं जैनेतर लगभग 50,000 पांडुलिपियों से भी अधिक निर्गत हो चुकी हैं, जिनमें से अकेले बर्लिन में ही तीस हजार पांडुलिपियां सुरक्षित
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