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विदित होता हैं कि उनके विश्वस्त मंत्री होने के साथ-साथ उनके वित्त, कानून, शिक्षा, देश-विदेश का व्यापार, गृह-निर्माण, मुद्रा- निर्माण ( टकसाल) आदि विभाग जैनों के हाथों में रहते थे। भारत में जितने भी बड़े-बड़े विश गगनचुंबी जैन मंदिर एवं कलापूर्ण पवित्र तीर्थभूमियां बनी हैं, वे हमारे जैन महारथियों की देश-सेवा, प्रजापालन, राष्ट्रभक्ति, कर्मठ-जीवन एवं कर्त्तव्यनिष्ठा के बदले में प्रशासकों के विविध उदार - सहयोगों से निर्मित हुए थे । एतद्विषयक विविध शिलालेख, दस्तावेज एवं प्राचीन ग्रंथ - प्रशस्तियां इसके साक्षात् उदाहरण हैं।
निरतिचार पंचाणुव्रतों के अनुसार दैनिक कार्यों को सम्पन्न करने के कारण हमारा समाज 'इंडियन पीनल कोड' में वर्णित जितनी भी अपराध शाखाएं हैं, सभी से सहज रूप में प्रायः मुक्त रहता आया है। ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं कि वर्तमान सदी के प्रारंभिक लगभग 3-4 दशकों तक किसी मुकदमें में यदि कोई जैन श्रावक गवाह के रूप किसी भी कोर्ट में उपस्थित हो जाता था, तो न्यायाधीश बिना किसी सोच-विचार के उसकी गवाही को सत्यमानकर उसके पक्ष में अपनी निर्णय दे देता था। क्योंकि तत्कालीन न्यायाधीशों की दृष्टि से जैनी श्रावक कभी भी झूठ नहीं बोलते थे। इस प्रकार की सामाजिक छवि के निर्माण में जैन पाठशालाओं का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता । उनसे संस्कार प्राप्त कर हमारे जैन समाज ने आत्महित की अपेक्षा परहित पर निरंतर ध्यान दिया, कल्याणकारी सार्वजनिक सेवाओं में सक्रिय योगदान किया, प्राणिमात्र के हित की बातें सोचीं और इस प्रकार अपने आदर्श चरित्र से युगों-युगों से उसने सभी के विश्वासों को अर्जित किया है।
21वीं सदी के संदर्भ में कुछ आवश्यक सुझाव
श्रावकोचित अहिंसा का जीवन में सार्थक प्रयोग
अब समय आ गया है कि हम गंभीरतापूर्वक यह मानसिकता बनाएं कि हमारा अतीत जैसा आदर्शपूर्ण एवं अनुकरणीय रहा है, भविष्य उससे भी अधिक उज्जवल एवं प्रगतिशील बने। इसके लिए हम सभी को सावधानीपूर्वक प्रयत्न करना होगा ।
इस तथ्य की जानकारी तो सभी को होगी ही कि भारत में जैनों को भी सिक्खों, बौद्धों एवं क्रिश्चियनों के साथ अल्पसंख्यकों की कोटि में रखा गया था, यद्यपि उसका कोई लाभ जैनों को नहीं मिल पाया। अभी हाल में उन्हें अल्पसंख्यकों की कोटि से अलग कर दिया गया है। यह हमारे लिए अपमान सूचक एवं खेदजनक विषय है । भारत सरकार की इस अन्यायपूर्ण नीति का विरोध पूरे जैन समाज को सुसंगठित होकर करना चाहिए। यदि 20 वीं सदी के अंतिम चरण में जैन समाज ने इस सरकारी अन्याय को सहन किया तो यह उसकी अगली पीढ़ी के हितों की उपेक्षा कही जाएगी तथा 21वीं सदी में हमारा समाज निश्चय ही त्रिशंकु की स्थिति को प्राप्तकर अपना भविष्य अंधकारपूर्ण बना सकता है।
यह ठीक है कि हम अहिंसक हैं और अहिंसक ही रहेंगे, किंतु आपातकाल में हमें कलिंग-सम्राट खारवेल तथा वीरसेनापति चामुंडराय आदि के आदर्शों से भी शिक्षा लेना आवश्यक है। यद्यपि वे श्रावक - शिरोमणि और जैनधर्म के पक्के अनुयायी थे, किंतु अपने कर्त्तव्यों की रक्षा और स्वाभिमान की सुरक्षा के लिए उन्होंने जो कुछ किया वह भारतीय इतिहास तथा जैन समाज का प्रेरक अध्याय है। विकसित बुद्धिजीवियों में सद्धांतिक मतभेद स्वाभाविक है । किंतु विवेक का तकाजा है कि उससे मतभेद उत्पन्न न हो । अतः पूरे जैन समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए उसे 21वीं सदी की फौलादी चुनौतियों का सामना करने के लिए एकजुट होकर कार्य करना चाहिए । विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में जैनधर्म एवं प्राकृत भाषा का अध्ययन एवं शोध
भाषा - वैज्ञानिकों के अनुसार प्राकृत भाषा भारत की प्राचीन जनभाषा अर्थात् आमलोगों की बोलचाल की भाषा थी । अतः भगवान महावीर ने अपने उपदेश उसी सार्वजनीन भाषा अर्थात् प्राकृत में दिए। हमारे प्राचीन आचार्यों ने
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