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आत्मघाती वातावरण में उनसे हमें पूर्ण सजग होकर रहना होगा अन्यथा, पिछली शताब्दियों में हमने जो प्रशस्त छवि अर्जित की उसमें आगामी 21वीं सदी मे अनेक विकृतियाँ आने की सम्भावनाएँ हैं। आधुनिक युग की विकृत परिस्थितियों में से कुछ निम्न प्रकार हैं - 1. जैनियों की विशिष्ट पहिचान कराने वाली दैनिक देव-दर्शन, शास्त्र-स्वाध्याय एवं गुरु-भक्ति के प्रति उपेक्षा की
प्रवृत्ति। 2. निरतिचार-श्रावकाचार-विहित जीवन-पद्धति से हटकर जीवन-चर्या । 3. मद्य, मांस एवं मधु के सेवन का सर्वत्र व्यापक प्रचार । 4. कामोत्तेजक-साहित्य एवं अश्लील फिल्मों के प्रदर्शन का बाहुल्य और नवीन पीढ़ी का उसकी ओर विशेष झुकाव ।
मर्यादाविहीन कृत्रिम आचार-विचार एवं भोजन के कारण तामसिक वृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि। 6. त्याग एवं समर्पण की संस्कृति पर भोगवादी स्वार्थी संस्कृति का आक्रमण ।
यौन-शोषण, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, माया, छल-कपट आदि की कुत्सित वृत्तियों का हमारे नैतिक
जीवन पर दुष्प्रभाव। 8. सामाजिक-सौहार्द, सौमनस्य तथा सामाजिक दायित्वबोध के प्रति अनासक्ति और समाज के स्वर्णिम भविष्य के
प्रति चिंता का अभाव। जैन-विद्या संबंधी सत्साहित्य के व्यक्तिगत संग्रह की भावना का अभाव। यहां यह ध्यातव्य है कि विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि जिस घर-परिवार में सत्साहित्य का संग्रह नहीं, वह घर अत्यंत मनहूस,
अपशकुनकारी अथवा श्मशान के समान होता है। 10. अर्थ संग्रह की मनोवृत्ति, हिंसक-व्यापार तथा उद्योग-धंधों के प्रति विशेष रुझान। 11. चरित्र निर्माण संबंधी बालोपयोगी साहित्य के लेखन तथा उसके प्रकाशन के प्रति उदासीनता। 12. सप्तव्यसन-सेवन तथा रात्रिभोजन के प्रति अत्यधिक रूचि। 13. जैनगुरुकुल एवं जैन पाठशालाओं की घोर उपेक्षा।
उक्त सभी तथ्य स्पष्ट हैं। अतः उनके विश्लेषण की यहां आवश्यकता नहीं है। इस प्रसंग में यह निवेदन अवश्य करना चाहूंगा कि हम सभी उक्त चरित्र-हनन संबंधी सभी प्रवृत्तियों से स्वयं तो बचें ही, अपनी-अपनी संतानों को उनसे बचाते हुए प्रारंभ से ही उनमें श्रावकोचित संस्कार अवश्य डालें। भविष्य-निर्माण के लिए अतीत से शिक्षा लेना आवश्यक
इन सामाजिक विकृतियों के कारणों की खोज के लिए हमें अपनी अतीतकालीन परंपराओं से शिक्षा लेनी होगी। हमारे पूर्वज अपने नैतिक आदर्शों का प्राणपण से अनुकरण किया करते थे। वे अपने बच्चों के जीवन-निर्माण के लिए सदाचार को उनके जीवन में उतारने का अथक प्रयत्न करते थे और उसके लिए नवांगी जैन मंदिरों की एक अंगीभूत इकाई के रूप में स्थापित जैन पाठशाला में उन्हें नियमतः अध्ययनार्थ भेजते थे। उन पाठशालाओं में आदर्श, अनुभवी पंडितों की नियुक्ति की जाती थी, जो उन्हें सुरुचि-सम्पन्न कथा-वार्ताओं तथा सरल लौकिक उदाहरणों के माध्यम से लौकिक शिक्षण के साथ-साथ सामाजिक दायित्व बोध तथा जैनाचार का शिक्षण देते थे। अब तो तेजी से बदलते हुए इस युग में इन पाठशालाओं की प्रासंगिता और भी अधिक बढ़ गई है। __हमारे पूर्वज प्रतिदिन देवदर्शन करने जाते थे तथा अपने-अपने बच्चों को भी साथ में ले जाते थे। इससे बच्चों पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में अच्छे संस्कार पड़ते रहते थे। हजारों-हजार वर्षों से हमारा यही सामाजिक नियम चला आ रहा है। इस पद्धति से अनेक ख्याति प्राप्त समाज सुधारक एवं दानवीर नेता तैयार हुए, जिनके नेतृत्व में हमारा समाज एक विकसित, पूर्ण सुशिक्षित, व्यसनमुक्त, आदर्श विश्वस्त एवं समृद्ध समाजों में अग्रणी माना जाता रहा। देश के प्रमुख राजवंशों-गंग, चालुक्य, कलचुरी, राष्ट्रकूट, चौहान, तोमर तथा मुगल सम्राटों के इतिहास से
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