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(जिनका कभी उत्तर-पूर्वी भारत और हिन्द-चीन में प्राधान्य था)। परिवार के अंतर्गत आने वाली मुंडा (या कोल)
और मोन-खमेर (अंशतः असम में बोली जाने वाली) आदि बोलियां भारत की सभ्यता और संस्कृति को प्रभावित किए बिना न रहीं। इन बोलियों तथा अन्य बोलियों के कितने ही शब्द-समूह ऐसे हैं जो आगे चलकर भारतीय संस्कृति के प्रमुख अंग बन गए। कुछ उदाहरण :(अ) कदली, नारिकेल, तांबूल, अलाबू, शाल्मली आदि शब्द दक्षिण-पूर्व एशियाई बोलियों के शब्द हैं, जिस
बोली को आर्य-पूर्व लोग इस्तेमाल करते थे। (आ) हनुमन्त (हनुमान) : तमिल के 'अण-मन्ति' शब्द से व्युत्पन्न ।।
ऋग्वेद (1086) में वृषा-कपि के रूप में, संस्कृत रूप 'हनुमन्त'। स्वस्तिक :—यह परिरूप क्रीट, कैपेडोसिआ, ट्रॉय, लिछुआनिया आदि स्थानों में भी पाया जाता है। कुछ लोग इसे सौर विष्णु के चक्र का संक्षिप्त रूप मानते हैं इसके चार आरों से सूर्य के गमनागमन का मार्ग सूचित होता है। सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेता जनरल कनिंघम ने इसे लिपि में अंकित सु+अस्ति (स्वस्ति) का द्योतक माना है। मूल रूप से लिथुआनिया-वासी साओ पाउलो (ब्राजील) की मेरी शिष्या कुमारी गुलबिस इलोना ने मुझे बताया कि इस चिह्न को अग्नि का क्रॉस माना गया है जो प्रकाश, अग्नि, जीवन, स्वास्थ्य एवं समृद्धि का सूचक है। लिथुआनिया के लोकगीतों में इसे आकाश का लुहार मानकर धान्य को पकाने वाला और दानवों को भगानेवाला कहा है। इससे जान पड़ता है कि स्वस्तिक का चिह्न अपने मूल रूप में प्राकृतिक शक्तियों से जुड़ा हुआ था। जनजातियां इसे दिव्य मानकर इससे प्रेरणा प्राप्त किया करती थीं। इन्द्र, वरुण, मित्र, नासत्य—ये चारों ऋग्वैदिक देवता, किंचित् परिवर्तनपूर्वक लगभग ईसा-पूर्व 14 वीं शताब्दी में बोघाज़-कोइ (एशिया माइनर) के अभिलेखों में उपलब्ध। हिट्टी भाषा में इन्द्र का इन-त-र
और वरुण का उ-रु-वन्+अ के रूप में उल्लेख । वस्तुतः जैसे कहा जा चुका है, हमारी ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक सामाजिक संस्कृति बहुत कर जन-जातियों की संस्कृति पर अवलंबित है। जन-जाति के गण जो कुछ मेहनत-मशक्कत से उपलब्ध होता, उसे बाँट-बाँटकर खाते, सहयोगपूर्वक मिलजुलकर रहते, भाईचारे का बर्ताव करते, एक-दूसरे को कम-से-कम कष्ट पहुंचाते। अहिंसा, करुणा एवं मैत्री की उनकी यह प्रवृत्ति हमें विरासत में मिली हैं जिसकी रक्षा के लिए आज भी हम प्राणपण से प्रयत्नशील हैं। देश की एकता, प्रभुता, अखंडता एवं सत्यनिष्ठा का नारा आज भी हमें सुनाई देता है। हमारे पूर्वजों ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक तत्कालीन समाज के जिन मूल्यों को प्रतिष्ठित किया है, वे मूल्य और वह परंपरा आज भी हमारे लिए उतने ही गुणकारी हैं जितने पहले थे, बल्कि उससे भी अधिक।
संदर्भ ग्रंथ 1- द वैदिक एज, जिल्द । (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपल) 2- सुनीतिकुमार चटर्जी, ओरिजिन एंड डेवलपमेंट ऑफ बंगाली लैंगवेज 3- डी.डी. कोसांबी, इंडियन हिस्ट्री (ऐन इंट्रोडक्शन टू) 4- जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत नैरेटिव लिटरेचर-ओरिजिन एंड ग्रोथ 5- जगदीशचन्द्र जैन, भारतीय दर्शन—एक नई दृष्टि
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