SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन व्यतीत करने के लिए लालायित थे, तो उनमें इस संसार के प्रति उदासीन वृत्ति की भावना क्यों जागृत हुई? अहिंसा एवं करुणा का उदय किन सामाजिक परिस्थितियों में हुआ ? आदि आदि।। इसका उत्तर है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर बदलती हुई परिस्थितियां जिनके अनुसार समय-समय पर मानव ने अपने आपको ढालने का प्रयत्न किया। कितनी अनुकूल परिस्थितियां थीं पहाड़ों और नदियों के इस देश में उत्तर में। हिमालय (हिम का आलय) प्रहरी के रूप में खड़ा हुआ है जो देवों के अधिदेव नीलकंठ शिवजी महाराज और पर्वत-कन्या पार्वती जी की अनुपम क्रीड़ाओं, का स्थल रहा है। कल-कल करती हुई सिंधु (अर्थात् साधारण नदी, आगे चलकर नदी विशेष के अर्थ में प्रयुक्त) नदी का स्वर चारों दिशाओं को गुंजित करता हुआ सुनाई दे रहा है। इस विशाल नदी की विशेषता इस बात से झलकती है कि इसके तट पर बसने वाले आर्यों के कबीले हिंदू (सिंध शब्द से) कहलाने लगे। ऋग्वेद के अंतर्गत नदी स्तुति सूक्त (1075) में सिंधु नदी को दौड़ने वाली, उपजाऊ, बाण, घोड़ा, गौ, पिता, माता, संरक्षक, पहरेदार, पर्वत-कन्या आदि विशेषणों से संबोधित कर उसे घोड़ों, रथों, वस्त्रों, ऊन, सुवर्ण आदि से समृद्ध कहा गया है। सप्तसिंधु (आगे चलकर सात में से केवल पांच ही नदियां रह जाने के कारण पंजाब (यानि पंच+ आब) नाम से संबोधित किए जाने वाले इस विशाल देश की अन्य प्रमुख नदियां हैं : सुतुद्रि (= शतद्रु–सौ धाराओं से दौड़ने वाली=सतलुज), बिपाश (बिपास=निर्बाध रूप से बहने वाली =व्यास), (परूष्णी) (इरावती रावी), असिवनी (अर्थात् कृष्णचन्द्रभागा-चन्द्ररेखा-चैनाब)। सितस्ता (=झेलम) इनके अतिरिक्त और भी कितनी ही नदियां इस देश में प्रवाहित होकर इसे उपजाऊ, धन-धान्य आदि से समृद्ध एवं मूल्यवान बनाती हैं : गंगा, यमुना, सरस्वती, सरयू, कुभा, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, गंडक, वाघमती और न जाने कौन-कौन। नदियों की भांति पर्वतों की संख्या भी कुछ कम नहीं। नगाधिराज हिमालय का उल्लेख किया जा चुका है। जैन परंपरा के अनुसार, यह पर्वत आकाशचारी विद्याधरों का क्रीडांगन रहा है। जैन मान्यता के अनुसार जब ऋषभदेव अष्टापद (कैलाश) पर्वत पर तपस्या में लीन थे, उनके संबंधी नमि और विनमि को उनके समीप आया जान नागराज धरणेंद्र ने कृपा करके उन्हें विद्याएं प्रदान की। आगे चलकर विद्याधरों ने अपने नगरों एवं सभा-भवनों में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित कर उन्हें विशेष सम्मानित किया। इसी प्रकार का दूसरा महत्वपूर्ण पर्वत है सम्मेद शिखर (समाधि-शिखर) जहां कतिपय तीर्थंकरों को छोड़कर शेष ने निर्वाण-पद की प्राप्ति की। इसे मल्ल पर्वत (संभवतः मल्लों का प्रभुत्व होने के कारण) भी कहा जाता है। यह पहाड़ी प्रदेश मुंडा, संथाल, ओरांव और मुइया आदि आदिवासी जातियों से घिरा हुआ है, इसलिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। मारंगबुरू अथवा बड़पाहाड़ी मुंडा जाति का देवता माना जाता है। यह देवता जादू विद्या का धनी था। कहा जाता है कि संथाल महिलाओं ने चालाकी करके उससे इस विद्या को ले लिया (बोमपास, सी.एच., फोकलोर ऑफ संथाल परगना) पर्वतयात्रा, गिरियात्रा, नदीयात्रा और उद्यानयात्रा के उल्लेख मिलते हैं, जिससे पता लगता है कि लोग पर्वत, गिरि, नदीतट और बाग-बगीचों में जाकर खाते-पीते, गाते-नाचते और मौज-मजा किया करते थे। तात्पर्य यह कि भारतीय प्रागैतिहासिक समाज का जीवन सुखद और आनंदमय था। उलझनें उसमें नहीं थीं, रुकावटें नहीं थी, सब लोग अपना-अपना कर्तव्य-पालन करते, दया-धर्म को पालते, दानशीलता एवं उदारवृति रखते, मज़हव का आग्रह नहीं था, एक-दूसरे को पीछे धकेल कर आगे बढ़ने की प्रवृति नहीं थी। ऐसी हालत में आश्चर्य नही कि वैदिक आर्यों ने 'जीवेम शरदः शतम्' ( हम सौ बरस जीएं) का स्वर उद्घोषित किया। संभवतया नदियों एवं पर्वतों द्वारा जन्य प्राकतिक सषमा से ओतप्रोत इस देश में हमारे ऋषि-मुनियों ने चिंतन-प्रधान संस्कृति को जन्म दिया। उन्होंने अपने गंभीर चिंतन, मनन और निदिध्यासन द्वारा रहस्यपूर्ण सृष्टि के अनेक रहस्यों, भेदों और मर्मों का उद्घाटन कर जीवन के सामाजिक मूल्यों की परंपरा स्थापित की। शक, कुषाण, हूण आदि कितनी ही जातियों ने समय-समय पर इस देश में प्रवेश किया। चीनी, यूनानी, तुर्की, अफगानी आदि सभ्यताओं से भारत ने टक्कर ली। तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गोंडी (बुन्देलखंड के आसपास बोली जाने वाली), ओरांव (बिहार, छोटा नागपुर, उड़ीसा में बोली जाने वाली) आदि द्राविड़ी भाषाओं तथा दक्षिण-पूर्व एशियाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy