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कहा जा सकता है जो मनुष्य की वास्तविक कला-संबंधी निर्बलताओं से जुड़ी हुई है। इस प्रकार के अतिशयोक्तिपूर्ण कहे जाने वाले लोक-आख्यान वस्तुतः मानव की कुंठा को अभिव्यक्त करते हैं, तथा ये समाज द्वारा लादे हुए प्रतिबंधों से पलायन करने में एक काल्पनिक साधन का काम करते हैं। (विलियम आर. बैस्कोम, द स्टडी ऑफ फोकलोर) अपने कथन के समर्थन में प्राचीन जैन ग्रंथों के आधार पर से यहां कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं :
जैन परंपरा के अनसार. ऋषभदेव प्रथम राजा. प्रथम जिन. प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती हो गए हैं। उनके पूर्व न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड और न दण्ड-विधाता। सभी प्रजाजन अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए सदाचारपूर्वक आनंद का जीवन व्यतीत किया करते थे। किसी प्रकार का वैमनस्य अथवा विद्वेष भाव उनमें नहीं था, अतएव आपसी कलह न होने के कारण किसी प्रकार के दण्ड की व्यवस्था न थी। कल्पवृक्षों द्वारा उन्हें सभी प्रकार का इहलौकिक सुख प्राप्त
था। लेकिन कालांतर में जब कल्पवृक्षों का प्रभाव घटने लगा और संतान को लेकर पारस्परिक कलह में वृद्धि होने लगी तो पहली बार दण्ड-व्यवस्था का विधान आरंभ हुआ (जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति 2, आवश्यकचूर्णि 553)। महाभारत (शांतिपर्व 50) में भी इसी प्रकार का आख्यान वर्णित है। यहां पृथु को सर्वप्रथम राजा घोषित किया गया है। इस प्रकार के लोक-आख्यान आदिवासी जातियों में बहुत पहले से प्रचलित थे। संथाली लोक-कथाओं में कहा गया है कि आरंभ में इस प्रकार का चावल पैदा होता था जिसका छिलका उतारने की आवश्यकता नहीं थी, तथा कपास के पौधों पर बने-बनाए तैयार कपड़े लगे रहते थे, कपास ओटकर उसकी रूई आदि बनाकर कपड़ा बुनने की जरूरत नहीं थी। लेकिन कालांतर में किसी कन्या के दुर्व्यवहार के कारण चावल और वस्त्र की अनायास प्राप्ति बंद हो गई, क्योंकि यह दुर्व्यवहार ठाकुर बाबा को पसंद न आया।। कल्पवृक्षों का प्रभाव कम हो जाने पर, प्रथम राजा ऋषभदेव ने प्रजा को शिक्षा दी :-वे लोग वनस्पति को हाथ से मलकर, उसका छिलका उतारकर भक्षण करें। वनस्पति को सुपाच्य बनाने के लिए, छिलला उतारकर उसे पत्तों के बने दोने में पानी में भिगो दें और फिर उसे हाथ या गर्मी में रखकर गरमा लें। तत्पश्चात् जब वृक्षों के संघर्ष से लोगों ने अग्नि पैदा होते हुए देखी तो वे फिर वे अपने राजा के पास पहुंचे। उन्हें आदेश प्राप्त हुआ कि अग्नि में पचन, प्रकाशन और दहन की शक्ति मौजूद है, उसका उपयोग किया जाए। उन्हें आदेश मिला कि वे लोग मिट्टी के बर्तन तैयार करें और उनमें वनस्पति रख, उसमें पानी डाल, उसे आग पर पकाकर खायें, इससे शरीर स्वस्थ रहेगा (देखिए, संघदासगणि
वाचक, वसुदेवहिंडि, पृ. 162, पंक्ति 30 से 163, पंक्ति 6, आवश्यकचूर्णि 154 आदि)।
अन्न को शरीर की गर्मी से पकाने का रिवाज बहुत पुराना है जो कोटा आदिवासी जाति में पाया जाता है (देखिए एमेन्यू, स्टडीज इन फोक टेल्स ऑफ इंडिया, जरनल ऑफ अमरीकन ओरियनटियल सोसायटी, 67)।
इससे यही सिद्ध होता है कि इस प्रकार की कितनी ही ऐसी वस्तुएं हैं जो भारत में रहने वाली आदिवासी जनजातियों में प्रचलित थीं और हमने उन्हें ग्रहण कर अपनी संस्कृति का एक प्रमुख अंग बना लिया। इस दृष्टि से सचमुच हम इन आदिमवासियों के कितने ऋणी हैं।
प्रागैतिहासिक भारतीय समाज को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं : जब आदिमवासी जातियां अपने कबीलों में रहती थीं तो जाति प्रथा कहां से आ गई ? यज्ञ-याज्ञों में पशुओं की बलि क्यों दी जाती थी ? और इस प्रथा का अंत करने में कौन से प्रमुख कारण रहे ? पाषाण-पूजा कहां से प्रवेश कर गई ? नारियल का महत्व क्यों बढ़ गया ? सिंदूर को क्यों महत्व दिया जाने लगा ? जब सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वरुण, पर्जन्य आदि प्राकृतिक दिव्य (चमकीली, दिव् चमकना) शक्तियों के दर्शन से आत्मविभोर हुए भारत के आर्यगण सौ शरद् ऋतुएं पारकर सुखी
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