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________________ हाथी, घोड़ा, वानर आदि जैन तीर्थंकरों के चिह्न इसी संबंध के द्योतक हैं। कल्पवृक्षों की भी यही सार्थकता है। कहते हैं कि पूर्वकाल में कल्पवृक्ष मनुष्य की प्रत्येक इच्छा पूरी करने में सहायक होते थे, उसे किसी प्रकार का श्रम नहीं करना पड़ता था। बिना कुछ किए-धरे उसे स्वादिष्ट भोजन, वेश-कीमती वस्त्र, मूल्यवान आभूषण, रहने के लिए सुंदर घर, घर के काम में आने वाले बर्तन-भाण्डे और कर्ण-मधुर संगीत का आस्वादन आदि सभी कुछ अनायास प्राप्त हो जाता था। जैन ग्रंथों में दस प्रकार के कल्पवक्षों का उल्लेख है। इससे पता लगता है कि आदिम समाज का प्रत्येक कबीला किसी-न-किसी पशु, पक्षी, वृक्ष, पौधे या कीट-पतंग से जुड़ा हुआ रहता था। उस पशु-पक्षी आदि को वह पवित्र समझता और उसका भक्षण करना उसके लिए सर्वथा निषिद्ध था। कबीले के इस चिह्न को टोटम, गणचिह्न, गोत्र अथवा कुल नाम से उल्लिखित किया गया है। उदाहरण के लिए, ओरांव जाति के कबीले पशु, पक्षी, मत्स्य, उरग और शाक नामक गोत्रों से विभाजित हैं। ये पशु आदि कभी किसी समय उक्त कबीले को किसी रूप में सहायक हुए होंगे, तभी से इनकी गणना टोटम या गोत्र में की जाने लगी। हिन्दुओं के लिए गोमांस वर्जित है, पड़वल जाति के लोग सांप का तंबा भक्षण करने से परहेज करते हैं, मोरे जाति के लोग मोर का और सेलार बकरे का मांस नहीं खाते, गोडांबे आम की लकड़ी जलाने के उपयोग में नहीं लेते। छोटा नागपुर के ओरांब कबीले के लोगों का टोटम वानर है जिससे वे अत्यंत सौहार्दपूर्ण व्यवहार करते हैं और उसे किसी तरह की हानि पहुंचाना, यहां तक कि उसे पालतू बनाकर रखना भी हेय मानते हैं। आदिम जातियों के जीवन-विकास में टोटम के महत्व को स्वीकार करते हुए 'द स्पीकिंग ट्री' के लेखक रिचर्ड लैनोय ने कहा है—"टोटम का चिह्न आदिमवासी जातियों का प्रकृति के साथ ऐसा ठोस सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करता है जैसा कि उनकी जाति-पांति भी नहीं करती।" । इन आदिमवासी कबीलों में प्रचलित उनके रीति-रिवाज, भाई-चारे के संबंध, कायदे-कानून, नीति-नियम एवं कथानक रूढ़ियां (मोटिफ अथवा अभिप्राय) आदि इतनी विविधता और समृद्धता से ओतप्रोत हैं कि उन्होंने भारत के प्रागैतिहासिक समाज को असाधारण रूप में प्रभावित किया। उनकी कितनी ही कथा-कहानियां, उनके विश्वास, प्रतीतियां और कथानकों में अंतर्भूत कथानक-रूढ़ियां एवं अनबूझ पहेलियां आदि द्वारा उत्तरकालीन साहित्य खूब ही समृद्ध बना। उदाहरण के लिए, आकाश में उड़ना, जड़ी-बूटियों से परिवेष्ठित किसी पर्वत-खण्ड को उठाकर लाना, बहते हुए जल अथवा जलते हुए अंगारों पर चलना, विष भक्षण से अप्रभावित रहना, कथा के नायक का सदैव अमर बने रहना, मृतक का जीवित हो जाना, मंत्रशक्ति के प्रयोग से रोग का निवारण, दिव्य शक्ति द्वारा राजपद के योग्य व्यक्ति का चुनाव, पक्षियों के सहारे आकाश में उड़कर रत्नों के द्वीप में पहुंचना, शुक, हंस, कपोत अथवा मेघ द्वारा प्रेम का संदेश प्रेषित करना, गीदड़, कौआ, छिपकली, शुक, गर्दभ, मेढ़ा, मछली आदि का शब्द सुनकर शकुन-अपशकुन का विचार करना आदि कितनी ही कथानक-रूढ़ियों के प्रकार इन कबीलों की कहानियों एवं पहेलियों में पाए जाते हैं जो प्रागैतिहासिक एवं समाजशास्त्रियों के अध्ययन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और जिनका अध्ययन कर हम तत्कालीन सामाजिक मूल्यों एवं परंपराओं का बोध प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। लोक-आख्यानों में सन्निहित से कथानक-रूढ़ियां भले ही देखने और सुनने में असंभव एवं अतिशयोक्तिपूर्ण जान पड़ती हों, पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं। इस प्रकार के लोक-आख्यान अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आख्यानों में उपलब्ध होते हैं जो मानव के आपसी भाईचारे की ओर इंगित करते हैं। यातुविद्या (जादू की विद्या) का उल्लेख ऋग्वेद में आता है जिसका प्रयोजन झूठमूठ असत्य अथवा भ्रांत वातावरण तैयार करना कदापि नहीं। यह विद्या प्रागैतिहासिककालीन समाज के उस दृष्टिकोण की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है जिससे पता लगता है कि आदिमकाल से ही मानव सदैव बुद्धिशाली एवं प्रगतिशील रहा है। इससे ज्ञात होता है कि उपयुक्त संसाधनों का अभाव होने पर भी, मानव अपने बुद्धि-कौशल और अपनी कल्पना-शक्ति के प्रयोग द्वारा, वास्तविक घटनाओं पर नियंत्रण न होने पर भी, नियंत्रण होने, का भ्रम पैदा कर, अपने कार्य में सफलता प्राप्त करने में सक्षम होता है। यातुविद्या को एक प्रकार की 'भ्रामक कला' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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