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________________ Role of Jainism in the World of Tomorrow आगतयुग में जैनधर्म की वैश्विक भूमिका डॉ० शेखरचन्द्र जैन यद्यपि यह विषय कछ काल्पनिक सा लग सकता है। पर यह भी सत्य है कि वर्तमान की नींव पर ही भविष्य की इमारत की मजबूती एवं सौन्दर्य की कल्पना की जाती है। वर्तमान के धुंधलके में ही आगत रोशनी का अनुमान हो जाता है। अभी हाल में ही अमरीका-यात्रा का अवसर मिला। वहां ओरलेन्डो में APCOT Centre देखने गया था। वहां अनेक वस्तुओं के साथ एक ऐसा भी स्थान बनाया गया है जहां आनेवाली सदियों में इस विश्व की जीवन जीने की कला के विकास की उत्तम परिकल्पना प्रस्तुत की गई है। मनुष्य का समस्त जीवन कम्प्युटराईज्ड-रिमोट कंट्रोल और रोबोट से चलेगा। बटन दबाते ही सब कुछ उपलब्ध होगा। अरे ! वह आकाश में बस्तियां बनाएगा। उसका जीवन उपलब्धियों का युग होगा। यह सब देखकर जैनशास्त्रों की भोगभूमि एवं कल्पवृक्ष की कल्पना ही पुनः साक्षात् होने लगी। ऐसा भी लगा कि हमारे शास्त्रों में उल्लिखित वर्णन मात्र कल्पना नहीं थी, अपितु आज का वैज्ञानिक भी वाले कल की सुखद उपलब्धियों की कल्पना उन्हीं वर्णनों के आधार पर प्रायोगिक रूप से सिद्ध करने में लगा है। उसे अनेक क्षेत्रों में सिद्धि भी प्राप्त हुई है। इसी सिद्धि के संदर्भ में वह आने वाले कल की सिद्धि पर विश्वस्त है। इसी परिप्रेक्ष्य में जब हम अपने विषय पर विचार करते हैं तो हमें वर्तमान युग की परिस्थितियों में एवं आने वाले कल की स्थिति में यही विश्वास से कहना उचित लगता है कि इस विश्व की सुख-शांति-समृद्धि में जैनधर्म के सिद्धांत मुख्य भूमिका निभायेंगे। यदि संक्षेए में वर्तमान युग में जैनधर्म के सिद्धांतों की सार्थकता एवं उपादेयता पर प्रकाश डालें तो यह शीर्षक उचित लगता है “भूतकाल के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान युग में जैन धर्म की भूमिका", मेरा अभिप्राय इतना ही है कि आज का विश्व बारूद के ढेर पर बैठा है। हिंसा-युद्ध, अविश्वास आज के विश्व की समस्याएं हैं। एक ओर विज्ञान की भौतिक उपलब्धियां तो प्राप्त हई पर उनके साथ अध्यात्म की आवश्यकता को नकारा गया। परिणामस्वरूप विकास के लिए प्राप्त उपलब्धियां विनाश का कारण बनीं। अहम् का विकास हुआ। धन-प्राप्ति की लालसा और दूसरे के सुख छीनकर समृद्धि की भावना ने मनुष्य और राष्ट्रों को अविश्वास से भर दिया। लालसा ने विश्वयुद्धों को जन्म दिया। इस युद्ध-विनाश के पीछे था मनुष्य का विकारी मन, हिंसात्मक भावना, परिग्रह की अपरिमित चाह और एकांतवादी दृष्टिकोण। जैन धर्म के बारह व्रतों पर दृष्टिपात करें तो ये सभी मानव को पूर्ण मानव बनाने के ही नियम हैं। पंचव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रतों पर विचार करें तो इनमें अहिंसक भावना, सत्यवक्ता, परंस्वहरण से निवृत्ति, ब्रह्मचर्य द्वारा चारित्रिक दृढ़ता, संग्रह की लोभवृत्ति से निवृत्ति, धन-धान्यादि में आवश्यकतानुसार परिमाण एवं परस्पर प्रीति, दया करुणा के ही मार्गदर्शक सिद्धांत हैं। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों की कल्पना उनकी सुखात्मक-दुखात्मक भावों की अभिव्यक्ति इस दर्शन में सबसे पहले व सर्वाधिकार से की गई है। षटकायिक जीवों की कल्पना, उनके अस्तित्व की बात कहने वाले जैन दर्शन ने हर जीव की समान महत्ता को स्वीकार किया है। ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' सूत्र इस तथ्य का प्रमाण है। यदि आज का मानव अपनी जैसी सुखात्मक-दुखात्मक अनुभूति दूसरों में भी करने लगे तो वह सभी हिंसात्मक कृत-कारित और अनुमोदना से बच सकता है। एक निर्भय विश्व के निर्माण में योगदान दे सकता है। यदि वह अनेकांतवाद को समझकर दूसरों के विचारों को भी समझने लगे तो अनेक संघर्ष और युद्ध टाले जा सकते हैं। प्राणीमात्र के प्रति करुणा उसे पर्यावरण-रक्षण में सहायक हो सकती है। आज का विश्व क्रमशः इन सिद्धांतों को अपना रहा है। उसे यह प्रतीति होने लगी है कि पशु-पक्षी, प्राणियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
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