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श्री जुगमन्दरलाल जैनी ने आत्मस्वातन्त्र्य के इस सिद्धान्त को बहुत ही सरल शब्दों में विवेचित किया है।1
इस भ्रम को भी हमें दूर कर लेना चाहिये कि जैन और बौद्ध धर्म समकालीन प्रवर्तन हैं। वास्तविकता यह है कि बौद्धधर्म जैनधर्म का परवर्ती है। स्वयं गौतम बुद्ध ने आरंभ में जैनधर्म को स्वीकार किया था किन्त वे उसकी कठोरताओं का पालन नहीं कर सके, अतः मध्यम मार्ग की ओर चले आये। इससे यह सिद्ध होता है कि बौद्धधर्म भले ही वेदों के खिलाफ रहा हो, किन्तु जैनधर्म, जो प्राग्वैदिक है, कभी किसी धर्म के विरुद्ध नहीं उठा या प्रवर्तित हुआ। उसका अपना स्वतन्त्र विकास है। संपूर्ण जैन वाङ्मय में कहीं किसी का विरोध नहीं है। जैनधर्म समन्वयमूलक धर्म है, विवादमूलक नहीं-उसके व्यक्तित्व से भी उसके प्राचीन होने का तथ्य पुष्ट होता है।
यहाँ श्री पी.आर. देशमुख के ग्रन्थ 'इंडस सिविलाइजेशन एंड हिन्दू कल्चर' के कुछ निष्कर्षों की भी चर्चा करेंगे। श्री देशमुख ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि 'जैनों के पहले तीर्थंकर सिन्धु सभ्यता से ही थे। सिन्धुजनों के देव नग्न होते थे। जैन लोगों ने उस सभ्यता/संस्कृति को बनाये रखा और नग्न तीर्थंकरों की पूजा की।
इसी तरह उन्होंने सिन्धुघाटी की भाषिक संरचना का भी उल्लेख किया है। लिखा है : 'सिन्धुजनों की भाषा प्राकृत थी। प्राकृत जन-सामान्य की भाषा है। जैनों और हिन्दुओं में भारी भाषिक भेद है। जैनों के समस्त प्राचीन
त में हैं; विशेषतया अर्द्धमागधी में; जबकि हिन्दुओं के समस्त ग्रन्थ संस्कृत में हैं। प्राकृत भाषा के प्रयोग से भी यह सिद्ध होता है कि जैन प्राग्वैदिक हैं और उनका सिन्धुघाटी-सभ्यता से सम्बन्ध था। 4
उनका यह भी निष्कर्ष है कि जैन कथा-साहित्य में वाणिज्यिक कथाएँ अधिक हैं। उनकी वहाँ भरमार है, जबकि हिन्दू ग्रन्थों में इस तरह की कथाओं का अभाव है। सिन्धुघाटी की सभ्यता में एक वाणिज्यिक कॉमनवेल्थ (राष्ट्रकुल) का अनुमान लगता है। तथ्यों के विश्लेषण से पता लगता है कि जैनों का व्यापार संमुद्र-पार तक फैला हुआ था। उनकी हुँडियाँ चलती/सिकरती थीं। व्यापारिक दृष्टि से वे मोड़ी लिपि का उपयोग करते थे। यदि लिपि-बोध के बाद कुछ तथ्य सामने आये तो हम जान पायेंगे कि किस तरह जैनों ने पाँच सहस्र वर्ष पूर्व एक सुविकसित व्यापार-तन्त्र का विकास कर लिया था।
इन सारे तथ्यों से जैनधर्म की प्राचीनता प्रमाणित होती है। प्रस्तुत विवरण मात्र एक आरंभ है; अभी इस संदर्भ में पर्याप्त अनुसंधान किया जाना चाहिए।
संदर्भ-सूची सिंध फाइव थाउजेंड इअर्स एगो रामप्रसाद चन्दा: 'मॉडर्न रिव्हय' कलकत्ता: अगस्त 1932 अतीत का अनावरण; आचार्य तुलसी, मुनि नथमल; भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 1969; पृ. 16 पद्मचन्द्र कोश, पृ. 494; ऋषभदेव (पु.) 1. ऋष + अभक् = जाना, दिव = अच् (संपूर्ण विद्याओं में पार जाने वाला एक मुनि); 2. जैनों का पहला तीर्थंकर ।
मार्कण्डेय पुराण : सांस्कृतिक अध्ययन; डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल पृ. 22-24 5. आदिपुराण 1/25 आचार्य जिनसेन । 6. प्रतिष्ठातिलक 18/1 नेमिचन्द्र।
भारतीय दर्शन. प.93: वाचस्पति गैरोला। 8. उड़ीसा में जैनधर्म डॉ. लक्ष्मीनारायण साहू श्री अखिल जैन मिशन, एटा उ०प्र०, 1949 9. 'नवनीत', हिन्दी मासिक, बम्बई' डॉ. मंगलदेव शास्त्री; जून 1974; पृ. 69. 10. दे. टि. क्र. 4 11. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका; पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री; भूमिका-डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल; पृ.
8. 12. भारतीय दर्शन; वाचस्पति गैरोला; पृ. 93 13. संस्कृति के चार अध्याय; रामधारी सिंह दिनकर; पृ. 39 14. आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव; डॉ. कामताप्रसाद जैन, पृ. 138
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