SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनके पदनाम हैं— माण्डलिक राजा, ग्रामाधिपति, जनपद- अधिकारी, दुर्गाधिकारी (गृहमंत्री), भण्डारी (कृषिवित्त मन्त्री), षडंग बलाधिकारी ( रक्षा मन्त्री), मित्र (परराष्ट्र मन्त्री) । मोहनजोदड़ो की मुद्राओं में उत्कीर्णित इन तथ्यों का स्थूल भाष्य संभव नहीं है; क्योंकि परम्पराओं और लोकानुभवों को छोड़कर यदि हम इन सीलों की व्याख्या करते हैं तो यह व्याख्या न तो यथार्थपरक होगी और न ही वैज्ञानिक । जब तक हम इस तथ्य को ठीक से आत्मसात नहीं करेंगे कि मोहन जोदड़ो की सभ्यता पर योगियों की आत्मविद्या की स्पष्ट प्रतिच्छाया है, तब तक इन तथ्यों के साथ न्याय कर पाना संभव नहीं होगा; अतः इतिहासविदों और पुरातत्ववेत्ताओं को चाहिये कि वे प्राप्त तथ्यों को परवर्ती साहित्य की छाया में देखें / खोजें और तब कोई निष्कर्ष लें । वास्तव में इसी तरह के तुलनात्मक और व्यापक, वस्तुनिष्ठ और गहन विश्लेषण से ही यह संभव हो पायेगा कि हमारे सामने कोई वस्तुस्थिति आये । अब हम उन प्रतीकों की चर्चा करेंगे, जो मोहन जोदड़ो के अवशेषों में मिले हैं और जैन साहित्य में भी जिनका उपयोग हुआ है। यहां तक कि उनमें से कुछ प्रतीक तो आज तक जैन जीवन में प्रतिष्ठित हैं। सब से पहले हम 'स्वस्तिक' को लेते हैं। सिन्धु घाटी से प्राप्त कुछ सीलों में स्वस्तिक (साँथिया) भी उपलब्ध है। 23 इससे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि सिन्धुघाटी के लोकजीवन में स्वस्तिक एक मांगलिक प्रतीक था । साँथिया जैनों में व्यापक रूप में पूज्य और प्रचलित है। इसे जैन ग्रन्थों, जैन मंदिरों और जैन ध्वजाओं पर अंकित देखा जा सकता है। व्यापारियों में इसका व्यापक प्रचलन है। दीपावली पर जब नये खाते - बहियों का आरंभ किया जाता है, तब साँथिया माँडा जाता है। 'स्वस्तिक' जैन जीव-सिद्धांत का भी प्रतीक है। इसे चतुर्गति का सूचक माना जाता है। जीव की चार गतियाँ वर्णित हैं : नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव । स्वस्तिक के शिरोभाग पर तीन बिन्दु रखे जाते हैं, जो रत्नत्रय के प्रतीक हैं। इन तीन बिन्दुओं के ऊपर एक चन्द्रबिन्दु होता है जो क्रमशः लोकाग्र और निर्वाण का परिचायक है । 'स्वस्ति' का एक अर्थ कल्याण भी है । 'त्रिशूल' दूसरा महत्वपूर्ण प्रतीक है, जो सिन्धुघाटी की सीलों पर तो अंकित है ही, जैन ग्रन्थों में भी जिसकी चर्चा मिलती है । त्रिशूल आज भी लोकजीवन में कुछ शैव साधुओं द्वारा रखा जाता है। जैन परम्परा में त्रिशूल को रत्नत्रय का प्रतिनिधि माना गया है । त्रिरत्न हैं: सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र । इसकी चर्चा 'धवला',' 'आदिपुराण, 2 पुरुदेव चम्पू" में मिलती है । त्रिशूल को जैनों का 'जैत्र' अस्त्र कहा गया 24 25 तीसरा है कल्पवृक्ष । यह कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी ऋषभमूर्ति के परिवेष्टन के रूप में उत्कीर्णित है । 'आदिपुराण' तथा 'संगीत समय सार' में इसके विवरण मिलते हैं। 27 अर्हदास ने 'मृदुलतालंकृतमुखः' कह कर मृदुलता-पल्लव का आधार उपलब्ध करा दिया है। 28 भरत चक्रवर्ती श्रद्धाभक्तिपूर्वक ऋषभमूर्ति के सम्मुख अंजलि बांधे नमन - मुद्रा में उपस्थित हैं। आचार्य जिनसेन, विमलसूरि आदि ने भरत की इस मुद्रा का तथा उनके द्वारा ऋषभार्चन का वर्णन किया है। तुलनात्मक अध्ययन और व्यापक अनुसंधान से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मोहन जोदड़ो की सील पर जो रूपक अंकित है वह जन-जीवन के लिए सुपरिचित, प्रौढ, प्रचलित रूपक है अन्यथा वह वहां से छन कर कविपरम्परा में इस तरह क्योंकर स्थापित होता ? एक तथ्य और ध्यान देने योग्य है कि ब्राह्मणों को अध्यात्मविद्या क्षत्रियों से पूर्व प्राप्त नहीं थी ! उन्हें यह क्षत्रियों से मिली, जिसका वे लोक से पल्लवन नहीं कर पाये। 'छान्दोग्य उपनिषद्' में इसकी झलक मिलती है। 30 जैनधर्म आत्मस्वातन्त्र्यमूलक धर्म है। उसने न सिर्फ मनुष्य बल्कि प्राणिमात्र की स्वतन्त्रता का प्रतिपादन किया है। जीव तो स्वाधीन है ही, यहाँ तक कि परमाणु- मात्र भी स्वाधीन है। कुल 6 द्रव्य हैं। प्रत्येक स्वाधीन है। कोई किसी पर निर्भर नहीं है। न कोई द्रव्य किसी की सत्ता में हस्तक्षेप करता है और न ही होने देता है। वस्तुतः लोकस्वरूप ही ऐसा है कि यहाँ संपूर्ण यातायात अत्यन्त स्वाधीन चलता है। जैनों का कर्म सिद्धान्त भी इसी स्वातन्त्र्य पर आधारित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014040
Book TitleWorld Jain Conference 1995 6th Conference
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain
PublisherAhimsa International
Publication Year1995
Total Pages257
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy