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किसी-न-किसी रूप में अंकित हुआ है। इन सारे तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि जैनों का अस्तित्व मोहन जोदड़ों की सभ्यता से अधिक प्राचीन है।
श्री रामप्रसाद चन्दा ने अगस्त 1932 के 'मार्डन रिव्हयू' में कायोत्सर्ग मुद्रा के सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है । उन्होंने इस मुद्रा को जैनों की विशिष्ट ध्यान-मुद्रा कहा और माना कि जैनधर्म प्राग्वैदिक है, उसका सिन्धुघाटी की सभ्यता पर व्यापक प्रभाव था ।
मोहनजोदड़ो की खुदाई में उपलब्ध मृण्मुद्राओं (सीलों) में योगियों की जो ध्यानस्थ मुद्राएँ हैं, वे जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करती हैं। वैदिक युग में व्रात्यों और श्रमणों की परम्परा का होना भी जैनों के प्राग्वैदिक होने को प्रमाणित करता है। व्रात्य का अर्थ महाव्रती है । इस शब्द का वाच्यार्थ है : 'वह व्यक्ति जिसने स्वेच्छया आत्मानुशान को स्वीकार किया है।' इस अनुमान की भी स्पष्ट पुष्टि हुई है कि ऋषभ प्रवर्तित परम्परा जो आगे चलकर शिव में जा मिली, वेदचर्चित होने के साथ ही वेदपूर्व भी है। जिस प्रकार मोहन जोदड़ो में प्राप्त सीलों की कायोत्सर्भ मुद्रा आकस्मिक नहीं है, उसी तरह वेद चर्चित ऋषभ नाम भी आकस्मिक नहीं है, वह भी एक सुदीर्घ परम्परा का द्योतक है, विकास है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में जिन अतीन्द्रियदर्शी वातरशन मुनियों की चर्चा है, वे जैन मुनि ही हैं।
श्री रामप्रसाद चन्दा ने अपने लेख में जिस सील का वर्णन किया है, उसमें अंकित / उत्कीर्णित ऋषभ मूर्ति को ऋषभ - मूर्तियों का पुरखा कहा जा सकता है। ध्यानस्थ ऋषभनाथ, त्रिशूल, कल्प वृक्ष - पुष्पावलि, वृषभ, मदु लता, भरत और सात मंत्री आदि महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं। जैन वाङ्मय से इन तथ्यों की पुष्टि होती है। 14 इतिहासवेत्ता श्री राधाकुमुद मुकर्जी ने भी इस तथ्य को माना है। ” मथुरा- संग्रहालय में भी ऋषभ की इसी तरह की मूर्ति सुरक्षित है। " पी. सी. राय ने माना है कि मगध में पाषाणयुग के बाद कृषि युग का प्रवर्तन ॠषभयुग में हुआ ।
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श्री चन्दा ने जिस सील का विस्तृत विवरण दिया है, वह परम्परा जैन साहित्य में आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित है। आचार्य वीरसेन (धवला के रचनाकार ) ", विमलसूरि- रचित प्राकृत ग्रन्थ 'पउमचरियं " एवं जिनसेनकृत 'आदिपुराण 20 की कारिकाओं / गाथाओं में जो वर्णन मिलते हैं, उनमें तथा उक्त सील में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव देखा जा सकता है। इन वर्णनों के सूक्ष्मतर अध्ययन से पता चलता है कि इस तरह की कोई मुद्रा अवश्य ही व्यापक प्रचलन में रही होगी क्योंकि मोहन जोदड़ो की सील में अंकित आकृतियों तथा जैन साहित्य में उपलब्ध वर्णनों का यह साम्य आकस्मिक नहीं हो सकता । निश्चय ही यह एक अविच्छिन्न परम्परा की ठोस परिणति है । यदि हम पूर्वोक्त ग्रन्थों के विवरणों को सील के विवरणों से समन्वित करें तो संपूर्ण स्थिति की स्पष्ट व्याख्या इस प्रकार संभव है :
पुरुदेव (ऋषभदेव) नग्न खड्गासन कायोत्सर्ग मुद्रा में अवस्थित हैं
उनके शीर्षोपरि भाग पर त्रिशूल अभिमण्डित है
यह रत्नत्रय की शिल्पाकृति है
कोमल दिव्यध्वनि के प्रतीक रूप एक लता-पर्ण मुखमण्डल के पास सुशोभित है।
दो ऊर्ध्वग कल्पवृक्ष - शाखाएँ हैं पुष्प फलयुक्त,
महायोगी उससे परिवेष्टित हैं
यह भक्ति-प्राप्य फल की द्योतक है।
चक्रवर्ती भरत भगवान् के चरणों में अंजलिबद्ध प्रणाम - मुद्रा में नतशीश हैं 2
भरत के पीछे वृषभ है, जो भगवान् ऋषभनाथ का चिन्ह (लांछन ) है
अधोभाग में हैं अपने राजकीय गणवेश में सात मन्त्री
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