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बटवारे के क्षण
श्री सुरेश 'सरल' सरल कुटी, गढ़ाफाटक, जबलपुर
मोहन लम्बी-लम्बी डगें भरता हुआ चला जा कभी दो दिन के अंतर से खाना मिल पाता है। रहा था । वृजलाल से उसे आज आखिरी फैसला बच्चों की याद आई तो उनके भूखे चेहरे मोहन के करना है। उसकी आंखों में क्रोध जितना गहरा सामने आने लगे-रात्रि के बारह बजे जब पांचों था चाल में उतनी ही तेजी थी । रामपुरा अभी बच्चे उठ-उठ कर बैठ जाते थे, रोते थे, भूख के आठ मील शेष था । धूप कड़ी होती जा रही थी। मारे पेट का दर्द बतलाते थे और मोहन उन्हें कुछ धूप से बचने के लिये ही वह भोर चार बजे चल न दे पाया था उस रात । पानी के घूट लेने की पड़ा था अपने शहर से । पर अभी तक बारह मील जिद की तो बड़ा लड़का बाहर भागने लगा था, ही चल पाया था।
तब क्रोध और प्रात्मग्लानि के कारण बच्चों को
उतनी ही रात को इतना पीटा था मोहन ने कि ___ मोहन की आंखों में बड़े भाई वृजलाल की
वे सिसकते-सिसकते सो गये । फिर सुबह मोहन ने छवि बार-बार नाच रही थी। ग्यारह वर्ष हो गये
पीतल के अन्तिम दो बर्तन गिरवी रखकर रोटियों थे उसे भाई से दूर हुए । ये ग्यारह वर्ष ग्यारह युग
का प्रबन्ध किया था । से कटे उसके । क्या विपत्तियां नहीं आई उस पर, परन्तु आज तक किसी ने खबर ली उसकी ? बस चलते-चलते रामपुरा चार-पांच मील बचा साल भर में एकाध बार मिल जुल लिया, हो गया होगा। मोहन को आज अपने पूर्व नियोजित हथभ्रातृत्व का निर्वाह ।
कंडों पर प्रसन्नता हो रही थी। उसे मालूम था
कि वृजलाल पड़ोस के गांव में शादी पर गये हैं। मोहन आज निर्णय ले चुका था, भाई से घर में भाभी और बच्चों को चकमा देकर उनका हिस्सा लेकर ही रहेगा। वह सोचता-बड़े भैया घोडा और एकाध मन अनाज लाने में कोई बड़ी का कर्तव्य था कि वे अपने मन ही से मुझे कुछ कलाबाजी दिखाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। देते पर उन्होंने अाज तक मेरे लिये कुछ नहीं सोचा। मुझे मरा हुआ समझ रखा है क्या ? तब की बात मोहन वृजलाल के गरीयस व्यक्तित्व से उतना और थी, तब मैं था और सशीला थी. पर अब.... ही डरता है जितना अपने स्व०पिता से कभी डरता अब हम दोनों के ही पांच बच्चे हैं और उनकी था। संकोच इतना करता कि बड़े भाई के सामने आवश्यकताएं अलग । धंधा चलता नहीं, क्या भैया अपने बच्चों को गोद लेना दूर हाथ पकड़कर सीढ़ी को इतना भी पता नहीं कि मेरे बच्चों को कभी- से उतार नहीं सकता था । इसीलिये वृजलाल की
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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