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________________ अधिकतम समय जिनवाणी की साधना में व्यतीत काष्ठासंघी भट्टारकीय विद्वान् राजमल्ल पाण्डे का करते थे । सन् १८६४ में उनका एकमात्र युवा पुत्र भी सम्बन्ध रहा है। स्व. आचार्य जुगलकिशोर गणेशीलाल कालकवलित हो गया-वृद्धावस्था में मुख्तार ने अपने एक लेख में वैराठ के मुख्य टीले यह आघात असह्य था। पंडितजी बिल्कल ट के ऊपर स्थित जिनमंदिर विषयक इस भ्रम का गये । ऐसी स्थिति में उनके भक्त शिष्य सेठ मूलचंद निरसन करते हुए कि वह 'इन्द्रविहार' अपर नाम सोनी आकर उन्हे अपने साथ अजमेर ले गये और 'महोदय प्रासाद' नाम का श्वेताम्बर मंदिर है, यह स्नेह पूर्वक अपने पास रखकर उनकी यथाशय सेवा सिद्ध कर दिया था कि विद्यमान भवन पार्श्वनाथ की, किन्तु दो वर्ष बीतते न बीतते अजमेर में ही भगवान् का दिगम्बर जिनालय है जो अकबरकालीन पंडितजी ने समाधिमरणपूर्वक देहत्याग किया। रहा हो सकता है। मुख्तार साहब ने वैराठ के अक्टूबर १६७४ में अजमेर में जब सरसेठ भागचन्द सम्बन्ध में और भी प्रकाश डाला है। पुरातत्त्व सोनी से हमारी भेंट हुई तो उनसे हमने उपरोक्त विभाग के रा. ब. दयाराम साहनी ने वैराठ में अनुश्रुति का उल्लेख किया था और उन्होंने भी पुरातात्त्विक उत्खनन किया था, जिसकी रिपोर्ट उसका समर्थन किया था। यह भी कहा जाता है में उन्होंने उक्त स्थान में प्राप्त अन्य पुरावशेषों के कि अपने अन्तिम समय का पूर्वाभास पाकर पंडितजी अतिरिक्त, वैराठ के श्मशान एवं ईदगाह के निकट ने जयपुर से अपने शिष्यों पं. पन्नालाल संघी, स्थित एक पुराने जैन बाग का वर्णन किया है, जिसे भंवरलाल सेठी आदि को बुलाकर यह इच्छा प्रकट किन्हीं ऋषभदास ने लगवाया था। उक्त बाग में की थी कि जैन साहित्य का देश-देशान्तरों में प्रचार कई समाधिस्मारक (छत्रियाँ) बनी थीं, जिनमें से किया जाय और एक उत्तम संस्कृत पाठशाला की एक में काष्ठासंघ-पुष्करगण-माथुरगच्छ के भट्टारक स्थापना की जाय । उक्त सुशिष्यों ने गुरु की इच्छा- ललितकीर्ति की चरणपादुकाएँ बनी थीं, जिनका पूर्ति का सप्रयत्न किया । कि अंकित लेखानुसार सं. १८५१ (१७६४ ई०) में स्वर्गवास हुआ था। इस छत्री की बगल में एक १९३८ ई० में स्व० बा. कामताप्रसाद ने अन्य छत्री भटारक ललितकीर्ति के शिष्य एवं पधर 'बैराठ अथवा विराटपुर' शीर्षक एक महत्वपूर्ण लेख पण्डित सदासूखदास की थी, जिनका देहान्त, अंकित प्रकाशित किया था ।' जयपुर जिले में, जयपुर लेखानुसार, सं. १९३७ (सन् १८८० ई०) में हुआ नगर से लगभग ८५ कि. मी. की दूरी पर स्थित था। इस आधार को लेकर बा. कामताप्रसादजी प्राचीन मत्स्यदेश की राजधानी एवं प्रसिद्ध सांस्कृतिक ने अपने पूर्वोक्त लेख में10 यह कथन किया है कि, केन्द्र बैराठ के साथ महाभारत की घटनाओं, जैन "इस शिलालेख के यह पं. सदासुखजी जयपुर वासी पुराण कथानों तथा बौद्ध धर्म का भी सम्बन्ध रहा प्रसिद्ध टीकाकार थं. सदासुखजी ही प्रतीत होते हैं, है और मध्यकाल (१६ वीं शताब्दी ई.) में जिन्होंने भगवती आराधना टीका संवत् १६०८ में पंचाध्यायी, अध्यात्मकमलमार्तण्ड, लाटीसंहिता, समाप्त की थी। अन्तिम जीवन में वह शायद जम्बूस्वामी चरित्र, पिंगल ग्रन्थ आदि के रचयिता वैराठ में उत्तम शैली देखकर वहाँ चले गये थे।" ७. श्री जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ५, किरण १ (जून १९३८), पृ. २४-३२ ८. लाटी संहिता की भूमिका, पृ. २१-२२ ६. आर्कोलाजिकल रिमेन्स एण्ड एक्सकेवेशन्स एट बैराठ, पृ. १४-१५ १०. जैन सिद्धान्त भास्कर, भा. ५, कि. १, पृ. ३० फुटनोट 2-80 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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