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________________ पं० सदासुखदासजी का जो इतिवृत्त ऊपर दिया जा चुका है, उसकी दृष्टि से कामताप्रसादजी का यह अनुमान सर्वथा भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है । टीकाकार पंडितजी का निधन अजमेर में हुआ प्रतीत होता है, न कि वैराठ अथवा जयपुर में । दूसरे, उनका निधन सं० १६२३ (सन् १८६६ ई० ) में हुआ प्रतीत होता है न कि उसके १४ वर्ष बाद १८८० ई० में । तीसरे, काष्ठासंघ से उनका कोई सम्बन्ध था अथवा भ० ललितकीति उनके गुरु रहे, ऐसा कहीं कोई संकेत नहीं है । वह भट्टारकीय पंडित भी नहीं थे । उनकी रचनाओं, उनके गुरुत्रों की आम्नाय और उनके शिष्यों के विचारों से यह सर्वथा स्पष्ट है कि पं० सदासुखदास कासलीवाल कट्टर तेरहपंथी शुद्धाम्नायी थे, और भट्टारक सम्प्रदाय या बीसपंथ के विरोधी थे । यह बात दूसरी है कि वह बड़ी भद्र प्रकृति, सरल परिणामों वाले धार्मिक सज्जन थे श्रतएव किसी की कटु आलोचना नहीं करते थे, विद्वेष तो किसी के साथ रखते ही नहीं थे - समभावी थे। संभव है. ऐसे ही किसी भ्रम में पड़कर डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने भी यह लिख दिया कि "यद्यपि आप बीसपन्थी आम्नाय के दीसें घरवासी रहें घरहूत उदासी, ११. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन, भा. २, पृ. २३७ । १२. लौकिक प्रवीना तेरापंथ मांहि लीना, मिथ्या बुद्धिकरि छीना जिन श्रातमगुण चीना है । पढ़ श्री पढ़ावै मिथ्या लटकू कढ़ावें, ज्ञानदान देय जिनमारग कहाँ लौं कहीजे गुणसागर सुखदासजू के, ज्ञानामृत पीय बहु अनुयायी थे, पर तेरहपन्थी गुरुनों के प्रभाव के कारण आप तेरहपन्थ को भी पुष्ट करते थे ।”11 प्रथम तो उस काल में कोई तेरहपंथी गुरु ( मुमि आदि) इस प्रदेश में थे ही नहीं। दूसरे, जैसा कि स्वयं डा० नेमिचन्द्र द्वारा उद्धत पंडितजी के शिष्य पारसदास निगोत्या की पंक्तियों से 12 सुस्पष्ट है पंडितजी तेरहपन्थ के ही अनुयायी, पोषक एवं समर्थक थे । सुयोग्य शिष्य ने स्वगुरु की यथार्थ एवं उचित ही प्रशंसा की है । महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International अस्तु, प्राय: एक ही देश और काल के समान नाम वाले दो व्यक्तियों के बीच ऐसे भ्रम प्रायः सहज ही हो जाते हैं । वैराठ का वह शिलालेख आगे भी इस प्रकार के भ्रमोत्पादन का कारण हो सकता है । अतएव आवश्यकता है कि जयपुर के ही कोई विद्वान् उक्त शिलालेख को अविकलरूप में प्रकाशित करदें और उक्त काष्ठासंघी भट्टारक ललितकीर्ति के शिष्य पं० सदासुख के विषय में खोजकर पर्याप्त ज्ञातव्य प्रकाशित करदें, जिससे टीकाकार पं० सदासुखदास कासलीवाल से उनका भिन्नत्व स्पष्ट प्रगट हो जाय । जिनमारग प्रकाशी जगकीरत जगभासी है। बढ़ावें हैं ॥ मिथ्याबुद्धिनासी है | - ज्ञानसूर्योदय नाटक-ट - टीका For Private & Personal Use Only 2-81 www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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