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________________ दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रवेश @ श्री रमाकान्त जैन बी. ए., सा. रत्न, तमिल कोविद - लखनऊ यद्यपि आदिनाथ ऋषभदेव से लेकर निर्ग्रन्थ हो अपना शरीर त्यागा था। विद्यावारिधि डा० ज्ञातृपुत्र वर्द्धमान महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थ- ज्योतिप्रसाद जैन की 'भारतीय इतिहास : एक ङ्कर इस भारतभूमि के उत्तरी भूभाग में जन्मे, दृष्टि' के अनुसार यह घटना महावीर निर्वाण संवत् पले और वही उनका कार्यक्षेत्र रहा । इतिहास काल 162 (ई० पू० 365) में घटी थी। प्राचार्य के प्रारम्भ से ही दक्षिण भारत उनके अनुयायियों भद्रबाहु को अपना कुल परम्परागत धार्मिक गुरु से युक्त रहा है। जैन धर्म कब और कैसे दक्षिण मानने वाले मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने भारत पहुँचा यह निश्चित रूप से बताना तो कठिन शासनकाल में अपने साम्राज्य के सुदूर दक्षिण में है, किन्तु इस सम्बन्ध में दसवीं ईस्वी में रत्ननन्दी स्थित प्राचार्य की उपर्युक्त समाधि स्थली को तीर्थ द्वारा संस्कृत में रचित भद्रबाहुचरित, 17वीं रूप में यात्रा-वन्दना की बताई जाती है। इतना शताब्दी ईस्वी में चिदानन्द कवि द्वारा कन्नड में ही नहीं 25 वर्ष के प्रभावशाली शासन के उपरान्त लिखे गये मुनिवंशाभ्युदय और 19वीं शती ईस्वी जब इस सम्राट ने ई० पू० 298 में अपने पुत्र में देवचन्द्र विरचित कन्नड राजवलिकथे में उल्लि- बिन्दुसार अमित्रघात को राज्यपाट सौंपकर जिन खित जनश्रु ति ध्यातव्य है। उसके अनुसार उत्तर दीक्षा ली तो वह सौराष्ट्र होता हुआ दक्षिण भारत भारत में 12 वर्षीय भीषण भिक्ष पड़ने की के कर्णाटक प्रदेशस्थ श्रवणबेल्गोल नामक उपर्युक्त आशंका से भगवान् महावीर के अन्तिग श्र तकेवलि स्थान पर ही पहुँचा और वहां एक पहाड़ी पर जैन भद्रबाह ने जैन मुनियों के विशाल संघ को लेकर मुनि के रूप में तपस्या करते हुए जीवन के शेष दक्षिण की ओर विहार किया था और जब वह दिन व्यतीत किये तथा ई० पू० 290 में समाधिविहार करते हुए कर्नाटक प्रदेश के वर्तमान हासन पूर्वक देह त्याग किया। उनकी स्मृति में वह पर्वत जिले में श्रवणबेलगोल नामक स्थान की कटवप्र चन्द्रगिरि तथा उस पर्वत की वह गुफा जहां उन्होंने पहाड़ी तक पहुँचे तो अपना अन्त समय निकट समाधिमरण किया था चन्द्रगुप्त बसदि कहलाई। पाया जानकर प्राचार्य कुछ शिष्यों के साथ वहीं इस अनुथ ति का समर्थन उक्त स्थान तथा श्रीरङ्गरुक गये और अपने शिष्य विशाखाचार्य को उन्होंने पत्तन के समीप मिले कतिपय प्राचीन शिलालेखों अन्य मुनियों के साथ तमिलनाडु के पाण्ड्य और से भी होता है । चोल राज्यों में जाने का आदेश दिया। कहते हैं उपर्युक्त अनुश्रुति से जहां हमें यह विदित प्राचार्य भद्रबाहु ने उक्त पहाड़ी के ऊपर समाधिस्थ होता है कि ईसा पूर्व की चौथी शताब्दी में जैन महावीर जयन्ती स्मारिका 76 2-45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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