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________________ उसके अनुसार संघ में 11 गणधर, 300 पूर्व- सिक महापुरुषों का इतिवृत्त भी यत्र तत्र दिया है। धारी, 700 केवली, 500 मनःपर्ययज्ञानी, 900 साथ ही में काव्य में सम्राट चन्द्रगुप्त के समय में विक्रिया ऋद्धिधारी, 1300 अवधिज्ञानी, 400 12 वर्ष के भयंकर दुष्काल का भी उल्लेख है। चारण ऋद्धिधारी, 9900 उपाध्याय, 36000 यही नहीं कवि ने लिखा है कि भद्रबाहु स्वामी आर्यिकाएं, 1 लाख श्रावक एवं तीन लाख श्राविकाएं सम्राट् चन्द्रगुप्त के साथ विशाल मुनिसंघ को थी। ये सभी महावीर के संघ के सदस्य थे और लेकर दक्षिणापथ की ओर विहार कर गये थे तथा रात्रि-दिवस अात्मचिन्तन एवं उनकी दिव्यध्वनि भद्रबाहु स्वामी के स्वर्गारोहण के पश्चात् मुनि श्रवण किया करते थे। महाकवि पुष्पदन्त ने जो संघ की अध्यक्षता चन्द्रगुप्त अपर नाम विशाखासंघ की गणना दी है उसमें मनःपर्ययज्ञानी एवं चार्य ने की थी। केवलज्ञानी आदि की संख्या में पर्याप्त भिन्नता है। ___काव्य में प्राकृतिक दृश्यों की भी कमी नहीं भगवान् महावीर ने अपनी दिव्यध्वनि में है। भगवान् महावीर के समवशरण के प्रभाव से सात तत्व, छह द्रव्य, गृहस्थाचार, मुनियों के 28 वसन्त ऋतु का सर्वदा व्याप्त रहना, शीतल मन्द मूलगुणों, तप के बाह्य एवं प्राभ्यन्तर भेदों, ज्ञान सुगन्ध समीर का बहना, चतुनिकाय देवों द्वारा के भेदों का विस्तृत वर्णन किया है। अतिशयों का प्रकट करना, दुष्काल का सर्वत्र प्रभाव होना, सूखे कुत्रों एवं तालाबों का जल से परिपूर्ण महाकवि रइबू से भगवान महावीर की पूर्व होना, भगवान के प्रभाव से सिंह और हाथी, सर्प भवावलि का वर्णन भी पुण्पदन्त के समान ही और मगर, बिल्ली और चूहा, ब्याघ्र और हिरण किया है। सर्व प्रथम भिल्ल की पर्याय में व्रत ग्रहण अपनी जन्मजात शत्रुता को ही समवशरण में करने का उल्लेख है तत्पश्चात् सम्राट् भरत के प्राकर नहीं भुला बैठते किन्तु समवशरण में एक मरीचि नामक पुत्र के रूप में उसका वर्णन किया साथ बैठकर महावीर के उपदेशामृत का पान भी गया है। मरीचि को जब यह मालूम होता है करने लगे हैं । कि वह चतुर्थ काल में अन्तिम तीर्थकर महावीर होगा तो उसके मन में अहंभाव जाग्रत होता है। कवि ने लोक का भी थोड़ा वर्णन किया है। इसके पश्चात् उसके जीवन में अनेक उतार, चढ़ाव साथ में सृष्टि कर्तृत्व का भी निरसन किया है। पाते हैं । सिंह की पर्याय में आने पर दो मुनियों उसके अनुसार जगत् का न कोई बनाने वाला है द्वारा आत्मदर्शन प्राप्त होने से उसका जीवन फिर और न कोई इसका विनाश ही करता है । सुमार्ग की ओर प्रवृत्त होता है और अन्त में वह अन्तिम तीर्थंकर के रूप में अवतरित होता है । किपउ ण घरिपयउ केणवि रखिउ अविणासिउ णाणेण णिरिक्खउ ।। रइबू ने काव्य के बीच में धर्म-चर्चापों से भद्रबाहु चरित्र का समावेश करके प्रस्तुत काव्य इस प्रकार अपभ्रश साहित्य में भगवान् में रमणीयता में वृद्धि कर दी है। 10 वीं संधि महावीर के जीवन पर ही विशाल प्रकाश नहीं में भद्रबाहु के चरित्र निरूपण ने एक स्वतन्त्र काव्य डाला गया है किन्तु उनके जीवन को काव्यत्व का रूप ले लिया है। कवि ने प्रसंगवश स्थूलिभद्र, शैली में प्रस्तुत कर पाठकों का ध्यान सहज ही चन्द्रगुप्त, नन्द, शकराव, चाणक्य आदि ऐतिहा- आकृष्ट कर लिया है। . 2-44 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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