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________________ मुनियों का एक विशाल संघ उत्तर भारत से दक्षिण किया। यही कारण है कि वे सम्पर्क में आने पर भारत की ओर वहां बसने के उद्देश्य से गया था शीघ्र ही दक्षिण के आदिवासियों को ग्राह्य और और वे लोग कर्णाटक प्रदेश तथा तमिलनाडु में उनमें लोकप्रिय हो गये । दक्षिणवासियों से सम्पर्क स्थित पाण्ड्य और चोल राज्यों में गये थे हमें यह बढ़ाने, उनके बीच जा बसने के उद्देश्य से उत्तर भी संकेत मिलता है कि इन स्थानों पर जैन धर्म भारत से जो आर्य पहले पहल दक्षिण की ओर गये और उसके अनुयायियों के प्रवेश का यह प्रथम उनमें उनका यह श्रमण व्रात्य वर्ग अग्रणी रहा चरण नहीं था अपितु इसके पूर्व ही उक्त प्रदेश में जिसके प्रतिनिधि जैन मुनि, बौद्ध भिक्षु और आजीन केवल उनका प्रवेश प्रत्युत प्रसार भी हो चुका वक साधु थे । होगा तभी प्राचार्य भद्रबाहु ने अपने विशाल मुनि संघ को, जिसकी संख्या लगभग 12000 रही बताई जैन मुनियों की सरल सादी जीवनचर्या, विनम्र स्वभाव, निष्कपट व्यवहार और नैतिक जाती है, शान्तिपूर्ण चर्या हेतु वहां ले जाने का शिक्षात्रों ने उस सभ्य विद्याधर जाति को मोह साहस किया होगा । लंका द्वीप में भी जैन धर्म का लिया और उसे उनका भक्त बना दिया। उन प्रचार ई० पू० की चौथी शती में होने के उल्लेख साधुओं ने इस सम्पर्क को घनिष्टता में परिणत मिले हैं जो उपर्युक्त परिकल्पना को पुष्ट करते हैं। करने हेतु स्थानीय बोलियों और भाषाओं को निस्संकोच सीखा और उन्हें ही उनके मध्य अपने इतिहास के पन्ने पलटने से यह ज्ञात होता है विचार-विनिमय का मुख्य साधन बनाया और कि आर्यों के दक्षिण भारत में प्रवेश करने के पूर्व साहित्य संरचना की । फलस्वरूप दक्षिण भारतीय वहां के निवासियों की सभ्यता समुन्नत थी, द्रविड़ भाषाओं-तमिल, तेलुगु और कन्नड के प्रारम्भिक लोग भौतिक सभ्यता के निर्माण में तथा अपने विकास में जैन-साधु मुनियों का प्रभूत योग रहा। लिये व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से जीवन की अनेक सुविधाओं को जुटाने में लगे हुए थे । उनका दक्षिण में जैन धर्म को जनसम्मान तथा जीवन धर्म निरपेक्ष था जिसकी प्रतिच्छाया उनके राज्याश्रय दोनों ही प्राप्त हुए और कई शताब्दियों तत्कालीन साहित्य में भी दृष्टिगोचर होती है। तक जैन मतावलम्बी दक्षिण भारतीय समाज में इन द्रविड़ों को काफी समय तक उत्तर भारत के अग्रणी पंक्ति में बने रहे। किन्तु बाद में शैव, वैदिक आर्य अपने से हीन, अपना शत्रु अथवा प्रति- वैष्णव और लिंगायत (वीर शैव) सम्प्रदायों के द्वन्द्वी नानते रहे और तिरस्कारपूर्ण वानर, दस्यु, कट्टर विद्वेष के कारण तथा राज्याश्रय समाप्त हो ऋक्ष, राक्षस आदि से उन्हें अभिहित किया तथा जाने पर उनकी वह स्थिति बराबर नहीं बनी रह उनसे सम्बन्ध और सम्पर्क रखना उन्होंने उचित सकी। अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा अनेक नहीं समझा । इसके विपरीत उत्तर के श्रमण व्रात्य कष्टों के बीच करते हुए अब भी 1971 ई० की आर्यों ने जो वैदिक बलियुक्त यज्ञयाग के विरोधी जनगणना के अनुसार दक्षिण भारत के प्रान्ध्र थे, वेद, ईश्वर और वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते प्रदेश, कर्णाटक, तमिलनाडु तथा केरल राज्यों में थे अपितु अहिंसा के पुजारी और अध्यात्मवादी थे लगभग तीन लाख (2,79,403) जैन निवास उनके प्रति उदार दृष्टि बरती, उनके गुणों का करते हैं । यह अवश्य है कि इनमें सर्वाधिक संख्या मुल्यांकन किया, उन्हें विद्याधर सम्बोधन से सम्मा- 2,18,862 कर्णाटक में और सबसे कम (3.336) नित किया तथा उनमें घुलने-मिलने का प्रयास केरल में है । 2-46 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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