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________________ समर्थन नहीं करती है, अतः कवि ने उसे इस रूप के समान आदर दो17 । मेघदूत में चर्मण्वती नदी में वर्णित किया है कि वह लौकिक रूढ़ि के अनुसार को गौवों के मारने से उत्पन्न तथा पृथ्वी में प्रवाह जह्व की कन्या के रूप में प्रसिद्ध तथा सगरपुत्रों रूप से परिणत रन्तिदेव की अकीर्ति कहा है18। को जाने के लिए स्वर्ग की सीढ़ियों के तुल्य है। पार्वाभ्युदय में इन्हीं विशेषणों के साथ इसे रन्तिदेव लौकिक श्रुति के रूप में स्वीकार करने पर आर्ष- की अकीर्ति स्वरूप कहा गया है । मेघदूत में परम्परा से उसका कोई विरोध नहीं है । मेघदूत किन्नरियों द्वारा त्रिपुरविजय के गीत गाने का में गङ्गा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि गंगा उल्लेख है, पार्वाभ्युदय में त्रिपुरविजय से तात्पर्य ने पार्वती के मुख में स्थित भ्र भङ्ग को मानों फेनों प्रौदारिक, तैजस और कर्मण तीनों शरीरों के से हंसकर तरङ्ग रूप हाथों को चन्द्रमा के ऊपर विजय का गीत है। मेघदूत में गौरी शब्द का लगाकर शिव के केशों को पकड़ लिया16 | जैन का प्रयोग पार्वती के लिए किया गया है, पार्वाभ्युपरम्परा मानती है कि हिमवन् पर्वत के प्रपात पर दय में यह गौरी स्त्री अथवा ईशान दिशा के स्वामी गंगाकूट है वहां भगवान् आदिनाथ की जटाजूटयुक्त की पत्नी के अर्थ में व्यजित हुआ है । मेघदूत प्रतिमा है, उसी के समीप गंगा बहती है । इसी में मेघ से कहा गया है कि वह शिवजी के हाथ का परम्परा का पोषण करते हुए जिनसेन ने कहा सहारा देने पर चलने वाली पार्वती के पैदल चलने है--जिस गंगा (हिमवान् पर्वत के पद्मसरोवर से पर अपने भीतर जल प्रवाह को रोककर अपने निकली हुई) महानदी ने तरंग रूप हाथों को शरीर को सीढ़ियों के रूप में परिणत कर दे । चन्द्रमा के ऊपर लगाते हुए श्वेतवर्ण फेनों में भौहों पार्वाभ्युदय में गौरी के स्थान पर देवभक्ति के की टेड़ी रचना पर मानों हंसकर अथवा गौरवर्ण कारण पूजा करने की इच्छुक जैन मन्दिर को स्त्रियों के भ्रू भङ्ग पर मानों हंसकर हिमवान् पर्वत आती हुई इन्द्राणी के लिए अपने शरीर को सीढ़ी के प्रपात पर गंगाकूट की निवासिनी देवी की रूप में परिवर्तित करने की मेघ से प्रार्थना की प्रतिनिधि होकर अर्हन्त भगवान् त्रैलोक्याधिपति गई है ।22 आदिदेव के केशों को पकड़ लिया (अर्थात् जिसने भगवान आदिनाथ की प्रतिमा के ऊपरी भागों में जिनसेन का जिनभक्ति में अटूट विश्वास है । स्थित जटाजूटों को पकड़ लिया) उसी इस नदी नागराज धरणेन्द्र तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति करते को जानो अर्थात् इस नदी को उस गंगा महानदी हुए कहते हैं हे भगवान् ! आपके विषय में थोड़ी १६. गौरीवक्यमृ कुटिरचना या विहस्येव फेनैः । शम्भौः केशग्रहणमयरोदिन्बु कालोमिहस्ता ।। मेघदूत १५० १७. पाश्र्धा. ५३ १८. कालिदास : मेघदूत ११४५ १६. पाश्वा. २०३६ १६. पा. २।३६ २० मेघदूत १४५६, पावा. २१६७ २१ मेघदूत ११६०, पावा. २१७५ २२. मेघदूत १।६०, पाश्वा. २१७६ MM M महावीर जयन्ती स्मारिका 76 2-7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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