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अतः वे निष्ठुर वायुनों से दूषित हैं । स्त्रियों का गान इस प्रकार के कानों की अचूक औषधि है, अतः स्त्रियों का गान सुनने से प्रसन्न हुआ योगी अवश्य ही उसका प्रत्युत्तर देगा। इस प्रकार स्त्री प्रलोभन के अनेक प्रसङ्ग पार्श्वभ्युदय में हैं । किन्तु अन्त में हमें ज्ञात होता है कि तीर्थंकर पार्श्व
ये प्रलोभन नहीं लुभा सके और प्रलोभन देने वाले वैरी को उनके समक्ष झुकना पड़ा, उनकी शरण लेनी पड़ी 12 । इससे यह अभिप्राय द्योतित होता है कि जिनसेन वासनाजन्य प्रेम के पक्षपाती नहीं हैं । वासनाजन्य क्षणभंगुर प्रेम का फल दुःख और क्लेश के अतिरिक्त और कुछ नहीं । कामवासनाओं को जलाए बिना आत्मतत्व की उपलब्धि नहीं हो सकती। बिना तपस्या के आत्मस्नेह परिनिष्ठित नहीं हो सकता, यही पार्श्वाभ्युदय का अमर सन्देश है । अन्य जैन सन्देशकाव्यों में भी प्रायः यह सन्देश दिया गया है। इस प्रकार शृंगार के वातावरण में शांतरस की अवतारणा हुई है । इसी की ओर लक्ष्य कर स्वर्गीय डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने कहा था- 'श्रृंगार के वातावरण में चलने वाली काव्य परम्परा को अपनी प्रतिभा से शांत रस की ओर मोड़ देना कम महत्वपूर्ण नहीं है । त्याग में विश्वास रखने वाले जैन मुनियों ने श्रमण संस्कृति के उच्चतत्वों का विश्लेषण पार्श्वनाथ और नेमिनाथ जैसे महापुरुषों के जीवन चरितों में अंकित किया है । जैन सन्देशकाव्यों में साहित्यिक सौन्दर्य के साथ दार्शनिक सिद्धांत भी उपलब्ध होते
११. मन्ये श्रोत्र पवनपरुषद्वेषितं ते मदुक्तां व्यक्ताकृतां समरविषयां सङ्कथां नो शृणोति । तत्पारुष्य प्रहरणमिदं भेषजं विद्धि गेयं
हैं । विषय के अनुसार मन और शील को दू नियुक्त करना और शीतलता तथा शांति का वातावरण उत्पन्न कर देना सर्वथा नवीन प्रयोग हैं । संयम, सदाचार एवं परमार्थतत्व का निरूपण काव्य की भाषा और शैली में होने से ( ये ) काव्य सहृदयजन आस्वाद्य बन गए हैं 18 ।
यद्यपि पाश्वभ्युदय में जैन धर्म के किसी सिद्धांत का विशेष रूप से प्रतिपादन नहीं किया गया है, तथापि मेघदूत के अनेक प्रसङ्गों को आचार्य जिनसेन ने जैनमत के अनुकूल ढालने का प्रयास किया है । उदाहरणतः मेघदूत में उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर का वर्णन है तथा उसके अन्दर शिव का अधिष्ठान बताया है। पाश्र्वाभ्युदय में महाकाल वन में कलकल नामक जिनालय 14 का वर्णन किया गया है । पशुपति शब्द का यहां पशु आदि प्राणियों के रक्षक भगवान् जिनेन्द्र अर्थ व्यञ्जित होता है 15 । जैन ग्रन्थों में हिमवद आदि पर्वतों से गंगा आदि नदियों का निर्गम बतलाया गया है पार्श्वभ्युदय में भारतवर्ष की गंगा आदि नदियों को उन नदियों की प्रतिनिधि कहा गया है । प्रतिनिधि होने के कारण उनमें स्नान करने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि तीर्थ के प्रतिनिधि भी पापों को नष्ट करने वाले कहे जाते हैं । मेघदूत में गङ्गा को जह्न, कन्या तथा सगरपुत्रों को जाने के लिए स्वर्ग की सीढ़ियों रूप में चित्रित किया गया है । जैन परम्परा इन पौराणिक कहानियों का
श्रोष्यत्यस्मात्परभवहितं सौम्य ! सीमन्तिनीनाम् || पाव. ४।१६
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१२. पा. ४।६०
१३.
डा. नेमिचन्द्र शास्त्री : संस्कृत काव्य के विकास में जैनकवियों का योगदान पृ० ४७१, ४७२. १४. पाव. २८ १५. वही २।१५
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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