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________________ a भी भक्ति विपुल पुण्य को उत्पन्न करती है। पाप से भयभीत या दुःखाकुल होने से अथवा मेरे भक्ति के प्रभाव से मुझे पत्नी के साथ यह कठिनाई प्रति अनुकम्पाभाव रखकर अशरण, निर्दय, से प्राप्त करने योग्य (दुर्लभ) नागेन्द्र पद प्राप्त अत्यन्त प्रौढ़मायायुक्त, दुष्टाभिलाषी (एबं) हुप्रा और जिसके माहात्म्य से भक्ति के अनुकूल पश्चात्ताप के कारण चरणों में गिरे हुए मुझे आचरण करने के लिए मैं विहार छोड़कर रत्नत्रय पापरहित करो'7 । हे मुनिमित्र पार्श्व जिनेन्द्र ! के धारी भगवान् ऋपभदेव के मन्दिर के शिखर से भक्ति से चरणों में झुके हुए मेरे भगवान् के चरणयुक्त उस कैलाश पर्वत से लौटा हूँ-4, वह (धरणेन्द्र कमलों के प्रसाद से मूढ़ता के कारण न्याय का पद को प्रदान करने वाली) भक्ति आपकी सेवा उल्लंघन किए हुए मैंने जो वाणी से अनेक प्रकार करती हुई मेरे कल्याण के लिए हो । हे देव ! की चेष्टा की वह मिथ्या हो, निन्दितात्मा मेरे उत्तम सम्पदा को देती हुई यह आपके चरणों की पापकर्म भी मिथ्या हों। इस प्रकार क्षण भर भी भक्ति इस जन्म में और परलोक में भी मेरे लिए मेरा अात्मस्वरूप ज्ञान से वियोग न हो।8 सब प्रकार से सुखदायी हो ।25 इस प्रकार पश्चात्तापयुक्त हृदय वाला शम्बरासुर भगवान् के उपर्युक्त विवरण से भक्ति के सम्बन्ध में प्रति अपने हार्दिक उद्गार व्यक्त करता है-हे निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैंभगवन् ! राशीभूत अथवा विनश्वर मेघ शब्द नहीं करके भी जैसे चातकों को जल देता है । उसी प्रकार १. थोड़ी सी भी जिनभक्ति बहुत पुण्य उत्पन्न प्रार्थना किए जाने पर मौन को धारण किए हुए करती है। भी पाप हम लोगों को अभीष्ट कल्याण प्रदान २. भक्ति उत्तम सम्पदा को देने वाली और करते हो । यदि भव्य जीवों के एकमात्र मित्र कल्याणकारिणी होती है। वह इस लोक मापसे भक्त इष्टफल निश्चित रूप से प्राप्त करता और परलोक में सुखदायक होती है। ही है तो अच्छा है अर्थात् यदि मौन होकर भी कुछ देते हैं और भक्त इष्टफल प्राप्त करता ही है तो ३. भक्ति का फल स्वतः प्राप्त होता है । आपका मौन श्रेयस्कर है। कल्पवृक्ष क्या संसार के लिए शब्दों से (उत्तरों से) फलते हैं ? याचकों , ४. भक्ति जीवों को पापरहित करती है । के अभीष्ट प्रयोजन का सम्पादन करना ही सज्जनों का उत्तर होता है26 | हे प्राणिमात्र के प्रति दया ५. भगवान् से प्रार्थना करते समय व्यक्ति यह भाव रखने वालें! विनम्र होकर मैं तुमसे प्राज भावना करता है कि क्षणभर के लिए भी दीनतासहित याचना करता हूँ। सौहार्द से अथवा उसका आत्मस्वरूप ज्ञान से वियोग न हो । २३. श्रेयस्सूते भवति भगवन्भक्तिरल्पाप्यनल्पम् ॥ पाॉ . ४१५४ २४. पावा. ४१५५ २५. वही ४।५६ २६. पावा. ४।६०-६१ २७. पाश्र्वा. ४१६३ २८. पावा. ४१६५ महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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