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________________ जगत् में जड़ और चेतन दो पदार्थ हैं। सृष्टि का विकास इन्हीं पर आधारित है । जीव का लक्षण चैतन्यमय कहा गया है । जीव अनन्त हैं और उनमें श्रात्मगत समानता होते हुए भी संस्कार, कर्म और बाह्य परिस्थिति आदि अनेक कारणों से उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास में बहुत ही अन्तर आ जाता है । इसी कारण सबकी पृथक् सत्ता है और सब अपने कर्मानुसार फल भोगते हैं । उनका सुख-दुःख किसी परोक्ष सत्ता के क्रोध और अनुग्रह पर अवलम्बित नहीं । वे स्वयं अपने भाग्य के नियंता हैं | स्वयं अपनी साधना और पुरुषार्थ के बल पर वे विषयकषायों और कर्मबंध से मुक्त हो, परमात्मा बन सकते हैं । 1 अनन्त जीवों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व होने तथा कर्मों की विविध वर्गरणाओं के कारण उनके विचारों में विभिन्नता होना स्वाभाविक है । अलग अलग जीवों की बात छोड़िये, एक ही मनुष्य में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अलग-अलग विचार उत्पन्न होते रहते हैं । अतः दार्शनिकों के समक्ष सदैव यह एक जटिल प्रश्न बना रहा कि इस विचारगत विषमता में समता कैसे स्थापित की जाये ? - जैन तीर्थंकरों ने और विशेषतः भगवान् महाबीर ने इस प्रश्न पर बहुत ही गंभीरतापूर्वक चिन्तन किया और निष्कर्ष रूप में कहा - प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है । द्रव्य में उत्पाद और व्यय से होने वाली अवस्थाओं को पर्याय कहा गया है। गुरग कभी नष्ट नहीं होते और न अपने स्वभाव को बदलते हैं किन्तु पर्यायों के द्वारा अवस्था से प्रवस्थान्तर होते हुए सदैव स्थिर बने रहते हैं । जैसे स्वर्ण द्रव्य है । किसी ने उसके कड़े बनवा लिए और फिर उस कड़े से कंकरण बनवा लिए तो यह पर्यायों का बदलना कहा जायेगा पर जो स्वर्णत्व गुण है वह हर अवस्था में स्थायी 1-150 Jain Education International रूप से विद्यमान रहता है । ऐसी स्थिति में किसी वस्तु की एक अवस्था को देखकर उसे ही सत्य मान लेना और उस पर अड़े रहना हठवादिता या दुराग्रह है । एकान्त दृष्टि से किसी वस्तु विशेष का समग्र ज्ञान नहीं किया जा सकता । सापेक्ष दृष्टि से, अपेक्षा विशेष से देखने पर ही उसका सही व संपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । यह सोचकर व्यक्ति को अनाग्रही, उदार और निर्मल चित्तवृत्ति वाला होना चाहिए। उसे यह मानकर चलना चाहिए कि वह जो कह रहा है, वह सत्य है पर दूसरे जो कहते हैं, उसमें भी सत्यांश है । इस दृष्टिकोण के आधार पर भगवान् महावीर ने जीवअजीव, लोक द्रव्य आदि की नित्यता- अनित्यता, - त, अस्तित्व - नास्तित्व और विकट दार्शनिक पहेलियों को सरलतापूर्वक सुलझाया और समन्वयवाद की आधारभित्ति के रूप में कथन की स्याद्वाद शैली का प्रतिपादन किया । जब व्यक्ति में इस प्रकार की वैचारिक उदारता का जन्म होता है तब वह श्रहं, भय, घृणा, क्रोध, हिंसा आदि भावों से विरत होकर सरलता, प्रेम, मैत्री, अहिंसा और अभय जैसे लोकहितवाही मांगलिक भावों में रमण करने लगता है। उसे विभिन्नता में अभिन्नता और अनेकत्व में एकत्व के दर्शन होने लगते हैं । आचार समन्वय की दिशा में जैन दर्शन ने मुनि धर्म और गृहस्थ धर्म की व्यवस्था दी है, प्रवृत्ति और निवृत्ति का सामञ्जस्य किया है । मुनि धर्म के लिये महाव्रतों के परिपालन का विधान है । वहां सर्वथा प्रकारेण हिंसा, भूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह के त्याग की बात कही गई है । गृहस्थ धर्मं में इन व्रतों की व्यवस्था दी गई है जहां यथाशक्य चार नियमों का पालन अभिप्रेत है । प्रतिभाधारी श्रावक वानप्रस्थाश्रमी की तरह और मुनि संन्यासाश्रमी की तरह माना जा सकता है । महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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