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________________ सांस्कृतिक एकता की दृष्टि से जैन दर्शन के इसी उदार प्रवृत्ति के कारण मध्ययुगीन विभिन्न समन्वयवाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उसने जानपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित रह सके सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रान्तीयतावाद आदि सभी हैं । जैनाचार्यों की यह भाषागत उदारता अभिमतभेदों को त्याग कर राष्ट्र-देवता को बड़ी उदार नन्दनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। और आदर की दृष्टि से देखा है। प्रत्येक धर्म के जैन धर्म अपनी समन्वय-भावना के कारण ही विकसित होने के कुछ विशिष्ट क्षेत्र होते हैं। उन्हीं सगुण और निर्गण भक्ति के झगड़े में नहीं पड़ा। दायरों में वह धर्म बंधा हुअा रहता है पर जैन धर्म गोस्वामी तुलसीदास के समय इन दोनों भक्तिइस दृष्टि से किसी जनपद या प्रान्त विशेष में ही धाराओं में जो समन्वय दिखाई पड़ता है उसके बंधा हुया नहीं रहा। उसने भारत के किसी एक बीज जैन भक्ति काव्य में प्रारम्भ से मिलते हैं । भाग विशेष को ही अपनी श्रद्धा का, साधना का जैन दर्शन में निराकार प्रात्मा और वीतराग और चिन्तना का क्षेत्र नहीं बनाया । वह सम्पूर्ण साकार भगवान् के स्वरूप में एकता के दर्शन होते राष्ट्र को अपना मान कर चला । धर्म का प्रचार हैं। पंचपरमेष्ठी महामंत्र में सगुण और निर्गुण करने वाले विभिन्न तीर्थंकरों की जन्मभूमि, दीक्षा- भक्ति का कितना सुन्दर मेल बिठाया है। अर्हन्त स्थली, तपोभूमि, निर्वाणस्थली अादि अलग-अलग सकल परमात्मा कहलाते हैं। उनके शरीर होता है, रही हैं। भगवान् महावीर विदेह उत्तर-बिहार में वे दिखाई देते हैं। सिद्ध निराकार हैं, उनके कोई उत्पन्न हुए तो उनका साधना क्षेत्र व निर्वाण स्थल शरीर नहीं होता, उन्हें हम देख नहीं सकते । एक मगध दक्षिण बिहार रहा। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्व- ही मंगलाचरण में इस प्रकार का समभाव कम नाथ का जन्म तो वाराणसी में हुआ पर उनका देखने को मिलता है। निर्वाण स्थल बना सम्मेदशिखर । प्रथम तीर्थंकर साधना-मार्ग में भी ज्ञान. भक्ति और क्रिया भगवान् ऋषभदेव अयोध्या में जन्मे पर उनकी पर समान बल देकर प्रचलित विवाद को शालीनता तपोभूमि रही कैलाश पर्वत और भगवान् अरिष्टनेमि पूर्वक सुलझाया गया है। जैन साधना में एकान्त का कर्म व धर्म क्षेत्र रहा गुजरात । भूमिगत सीमा ज्ञान, भक्ति, या क्रिया को महत्व नहीं दिया गया की दृष्टि से जैन धर्म सम्पूर्ण राष्ट्र में फैला । देश है। वहां 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' की चप्पा चप्पा भूमि इस धर्म की श्रद्धा और शक्ति कहकर रत्नत्रय आराधना का युगपत् विधान किया का आधार बनी । दक्षिण भारत के श्रवणबेलगोला गया है। व कारकल आदि स्थानों पर स्थित बाहुबली के साहित्य की दृष्टि से भी जैनधर्म का समन्वयपरक प्रतीक आज भी इस राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक हैं। राष्ट्रीय स्वरूप हमारे सामने आता है। मौलिक __ जैन धर्म की यह सांस्कृतिक एकता भूमिगत साहित्य-सर्जना में जैन साहित्यकारों ने प्रचलित ही नहीं रही। भाषा और साहित्य में भी उसने धार्मिक लोक मान्यताओं और विशिष्ट कथानक समन्वय का यह प्रौदार्य प्रकट किया। जैनाचार्यों रूढ़ियों की कभी उपेक्षा नहीं की। वैष्णव साहित्य ने संस्कृत को ही नहीं अन्य सभी प्रचलित लोक के लोकप्रिय चरित्रनायकों राम और कृष्ण को जैन भाषाओं को अपनाकर उन्हें समुचित सम्मान दिया। साहित्य में सम्मान का स्थान दिया गया है । कथाजहां-जां भी वे गए वहां-वहां की भाषाओं को नक की दृष्टि में दृष्टिकोण का अन्तर भले ही रहा चाहे वे आर्य परिवार की हों, चाहे द्रविड़ परिवार हो फिर भी वेसठशलाका पुरुषों में इन्हें स्थान दे की, अपन उपदेश और साहित्य का माध्यम बनाया। देना कम गौरव की बात नहीं। ये चरित्र जैनियों महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-151 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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