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________________ समस्त विश्व में जैनधर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो अनाग्रही है। प्राग्रह को उसमें किसी प्रकार का कोई स्थान नहीं है। यहां तक कि उन्हें अपने तीर्थंकरों के प्रति भी कोई आग्रह, कोई पक्षपात नहीं है। वे महावीर के तथा अन्य तीर्थकरों के उपदेशों को इस कारण सही और अनुकरणीय नहीं मानते कि वह उनका कहा हुवा है अपितु उनके ऐसे मानने का कारण यह है कि उनके वचन युक्ति और तर्क की कसौटी पर बावन तोला पाव रती शत प्रतिशत सही उतरते हैं, वे प्रखण्डनीय तथा पूर्वापर विरोध से रहित होते हैं। और इसका एकमात्र कारण यह है कि वे 'ही' का प्रयोग न कर 'भी' के प्रयोग द्वारा विभिन्न दृष्टिकोणों और वादों का वैज्ञानिक तरीके से समन्वय तथा एकीकरण करते हैं। यह सम्पूर्ण विवादों के हल का एक मात्र तरीका है जिसे अपना कर माज विश्व युद्ध के भय से मुक्तिलाभ कर सकता है। प्र० सम्पादक जैनदर्शन में समन्वय-भावना* डा० नरेन्द्र भानावत, जयपुर । यह बड़े आश्चर्य की बात है कि 'जैन' शब्द अर्थात् जिन्होंने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त आगम ग्रन्थों में नहीं मिलता। वहां 'समण'या' श्रमण करली है उन अरिहन्तों को नमस्कार हो, जो संसार शब्द का प्रयोग हुआ है। श्रमण शब्द समभाव, के जन्म-मरण के चक्र से छूटकर शुद्ध परमात्म बन श्रमशीलता और समन्वय भावना का परिचायक गए हैं उन सिद्धों को नमस्कार हो, जो दर्शन, ज्ञान, है । जैन शब्द परवर्ती प्राचार्यों का दिया हुआ है। चारित्र, तप आदि प्राचारों का स्वयं पालन करते जिन्होंने राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को जीत लिया है, हैं और दूसरों से करवाते हैं उन प्राचार्यों को वे जिन कहे गये हैं और उनके अनुयायी 'जैन।' नमस्कार हो, जो पागमादि ज्ञान के विशिष्ट व्याइस प्रकार जैन धर्म किसी विशेष व्यक्ति, सम्प्रदाय ख्याता हैं और जिनके सान्निध्य में रहकर दूसरे या जाति का परिचायक न होकर उन उदात्त अध्ययन करते हैं, उन उपाध्यायों को नमस्कार हो; जीवन-पादों और सार्वजनीन भावों का प्रतीक है लोक में जितने भी सत्पुरुष हैं उन सभी साधुओं को जिनमें संसार के सभी प्राणियों के प्रति प्रारमो- नमस्कार हो चाहे वे किसी जाति, धर्म, मत. या पम्य मैत्री भाव निहित हो। दूसरे शब्दों में जैन धर्म तीर्थ से सम्बन्धित क्यों न हो। कहना न होगा कि व्यक्तिपूजक या जातिपूजक न होकर गुणपूजक नमस्कार मंत्र का यह गुणनिष्ठ आधार जैनदर्शन है । यही कारण है कि जैनियों का जो नमस्कार की उदारचेता समन्वयवादी भावना का मेरुदण्ड है । मंत्र है उसमें न महावीर का नाम लेकर वंदना की गई है, न पार्श्वनाथ का नाम लेकर । उसमें पंच जैन दर्शन की समन्वय भावना विचार और परमेष्ठियों को नमन किया गया है-णमो अरिहन्ताणं, आचार दोनों क्षेत्रों में देखने को मिलती है । विचारणमो सिद्धारणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झा- समन्वय की दिशा में अनेकान्त दृष्टिकोण अत्यन्त याणं, णमो लोएसव्वसाहूणं । महत्वपूर्ण देन है । जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार * आकाशवाणी, जयपुर द्वारा प्रसारित महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-149 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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