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________________ सकाम । अकाम निर्जरा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी कर सकते हैं । ज्ञानपूर्वक तपस्यादि के द्वारा कर्मों का क्षय करना सकाम निर्जरा है । ज्ञानपूर्वक दुखों का सहन करना अकाम निर्जरा है । दु वचन, परिषह, उपसर्ग और क्रोधादि कषायों को सहन करना, मानापमान में समभाव रखना, अपने अवगुण की निन्दा करना, पांचों इन्द्रियों को वश में रखना निर्जरा है । इसी प्रकार के शुद्ध विचार निर्जरा भावना है । ( 10 ) धर्म भावना साथ धर्म शब्द बड़ा व्यापक है । यह डूबते का सहारा, अनाथों का नाथ, सच्चा मित्र औौर पर भव में जाने वाला सम्बन्धी है । उसके अनेक रूप हैं । जो उसे धारण करता है उसके दुख सन्ताप दूर हो जाते हैं । 'वत्सहावो धम्मो' वस्तु का स्वभाव धर्म है । अतः धर्म में दृढ़ श्रद्धा और आचरण में धर्म को साकार करते हुए हमें ग्रात्मा को इह लोक और परलोक में सुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । (11) लोक भावना लोक का अर्थ है -- जीव समूह और उनके रहने का स्थान | जैसे एक घर में रहने वाला सदस्य अपने घर के सम्बन्ध में बातचीत करता है, उसके उत्थान यादि के बारे में चिन्तन करता है वैसे ही मनुष्य इस लोकगृह का एक सदस्य है । 1-132 Jain Education International अन्य जीव समूहों के साथ उसका दायित्व है, संबंध है क्योंकि लोक में ऐसी कोई जगह नहीं जहां जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो। ऐसे लोक स्वरूप का चिन्तन व्यक्ति को वैराग्य और निर्वेद की ओर उन्मुख करता है । (12) बोधि दुर्लभ भावना अनन्त काल तक अनेक जीव योनियों में भ्रमण करते हुए यह मनुष्य भव मिला है । अनेक बार चक्रवर्ती के समान भद्धि प्राप्त की है । उत्तम कुल, प्रार्य क्षेत्र भी पाया परन्तु चिन्तामरिण के समान सम्यक्त्व रत्न प्राप्त करना बड़ा दुर्लभ है, ऐसा चिन्तन करना बोधि दुर्लभ भावना है । शास्त्रों, विद्वानों और सन्तों ने व्यक्ति के जन्म मरण को सुधारने और उसके व्यक्तित्व के विकास के लिये भावना की शुद्धि को जो महत्व दिया है। वह सचमुच बड़ा प्रेरक है । आज व्यक्ति यदि अपने भावशुद्धि की ओर ध्यान दे तो उसके अन्तर्मन में छाया राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, मोह आदि कथाओं का कुहरा एकदम समाप्त हो जायगा और उसका जीवन स्वच्छ निर्मल जल की भांति शुद्ध और शीतलता दायक बन जायेगा । शुद्ध भावना से न केवल व्यक्ति को व्यक्तिगत लाभ होगा वरन् इससे पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय सौजन्य का वातावरण भी बनेगा । महावीर ने कहा 'स्वयं कृतः कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । - श्र० श्रमितगति, पु० सि० उ० । For Private & Personal Use Only महावीर जयन्ती स्मारिका 76 www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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