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________________ कोई" मेरा कोई नहीं है। यह बार-बार विचार देते हैं किन्तु उस सुन्दर चर्म के नीचे ये घिनौने कर नमि राजर्षि की भांति परमानन्द को प्राप्त पदार्थ भरे पड़े हैं। ऐसा शरीर प्रीति के योग्य कैसे करना चाहिये। हो सकता है ? इस प्रकार अशुचि भावना का चिन्तन कर शरीर की वास्तविकता समझ आत्मा (5) अन्यत्व भावना पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये । अन्यत्व भावना का चिन्तन हमें यह सूत्र देता है-अन्नो जीवो अन्नं इमं सरीरं-अर्थात् यह जीव (7) आस्रव भावना अन्य है, शरीर अन्य है। जो बाहर में है, दीख अज्ञान युक्त जीव कर्मों का कर्त्ता होता है। रहा है, वह मेरा नहीं है, जो काम भोग प्राप्त हुए कर्मों के आगमन का मार्ग प्रास्रव कहलाता है । हैं वे भी मेरे नहीं है। वे सब मुझ से भिन्न हैं। प्रास्रव यानि पुण्यपाप रूप कर्मों के पाने के द्वार यदि मैं भिन्न वस्तु में, पर वस्तु में अपनत्व बुद्धि जिसके माध्यम से शुभाशुभ कर्म प्रात्म प्रदेशों में करूगा तो वह मेरे लिये दुःखों और चिन्तामों का पाते हैं, शात्मा के साथ बंधते हैं । यह संसार रूपी कारण होगा। इसलिये पर वस्तुओं से आत्मा को वृक्ष का मूल है । जो व्यक्ति इसके फलों को चखता भिन्न समझना चाहिये। प्रात्मगुणों को पहचानने है वह क्लेश का भाजन बनता है। प्रास्रव भाव के लिये भगवान् महातीर ने उत्तराध्ययन सूत्र संसार परिभ्रमण का कारण है । इसके रहते प्राणी में कहा है सद असद् के विवेक से शून्य रहता है। आस्रव भावना के चिन्तन से प्रात्म विकास सकम्प बीमो अवसो पयाइ, होता है। परिणामस्वरूप जन्म मरण रूप संसार से परं भवं सुन्दर पावगं वा ।। मुक्त हो आत्मा अक्षय अव्याबाध सुख मोक्ष प्राप्त (उत्त. अ. 13, गा. 241) करती है । अर्थात् यह पराधीन आत्मा द्विपद, दास-दासी, (8) संवर भावना चतुष्पद-घोड़ा, हाथी, खेत, घर, धन, धान्य ग्रादि आस्रव का अवरोध संवर है। जैसे द्वार बन्द सब कुछ छोड़कर केवल अपने किये हुए अच्छे या हो जाने पर कोई घर में प्रवेश नहीं कर सकता है बुरे कर्मों को साथ लेकर पर भव में जाती है। वैसे ही प्रात्मपरिणामों में स्थिरता होने पर, प्रास्रव कहने का तात्पर्य यह है कि ये सब पदार्थ पर हैं का निरोध होने पर आत्मा में शुभाशुभ कर्म नहीं अर्थात साथ जाने वाले नहीं हैं फिर इनमें अानन्द आ सकते । प्रात्मशुद्धि के लिये कर्म के आने के क्यों मनाना ? इस शरीर से प्रात्मा को भिन्न मार्गों को रोकना आवश्यक है अतः व्रत प्रत्याख्यान मानना ही अन्यत्व भावना है। रूप संवर को धारण करने की भावना पाना ही (6) अशुद्धि भावना संवर भावना है । संवर भावना से जीवन में संयम तथा निवृत्ति की वृद्धि होती है। यह शरीर अनित्य है, अशुचिमय है, मांस, रुधिर, चर्बी इसमें भरे हुए हैं। यह अनेक व्याधियों (9) निर्जरा भावना का घर है, रोग व शोक का मूल कारण है । व्यक्ति तपस्या के द्वारा कर्मों को दूर करना निर्जरा सुन्दर कामिनियों पर मुग्ध हो जिन्दगी बर्बाद कर है। निर्जरा दो प्रकार की होती है अकाम और महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-131 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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