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________________ क्रोध से बढ़कर हमारा कोई शत्र, नहीं। जब इसका प्रवेश होता है तो विवेक भाग जाता है। लब हमें अपने कर्तव्य और अकर्तव्य की पहिचान नहीं रहती। पिता पुत्र को और पुत्र पिता को, माता को मार डालता है। इसीलिए कषायों में इसका सबसे प्रथम स्थान है। क्रोधी कभी प्रात्मजयी नहीं हो सकता। क्रोध उत्पन्न तब होता है जब हम पर-पदाथों में इष्ट अनिष्ट की कल्पना करते हैं। यदि हम ऐसा करना छोड़ दें और अपने विवेक को सतत् जागरूक रखें तो सहज ही क्रोध पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। यह है प्रसिद्ध चिन्तक की इस रचना का सार संक्षेप । प्र० सम्पादक सम्पूर्णता की राह में बाधक : क्रोध .डा० हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर यद्यपि यह प्रात्मा ज्ञान का धनपिंड और जिन विकारों के कारण, जिन कमजोरियों प्रानन्द का कन्द है, स्वभाव से स्वयं में परिपूर्ण के कारण, आदमी सफलता के द्वार पर पहुंच कर है तथापि कुछ विकृतियां, कमजोरियां तब से ही कई बार असफल हुआ, सुख और शांति के शिखर इसके साथ जुड़ी हुई हैं, जब से यह है। उन कम- पर पहुंच कर उसे प्राप्त किए बिना ही ढुलक गया, जोरियों को शास्त्रकारों ने विभाव कहा, कषाय उन विकारों में, उन कमजोरियों में सबसे बड़ा कहा और न जाने क्या-क्या नाम दिये। उनके विकार, सबसे बड़ी कमजोरी है क्रोध । स्याग का उपदेश भी कम नहीं दिया। सच्चे सुख को प्राप्त करने का उपाय भी उनके त्याग को क्रोध आत्मा की एक ऐसी विकृति है, ऐसी ही बताया। यहां तक कहा--- कमजोरी है जिसके कारण उसका विवेक समाप्त क्रोध मोह मद लोभ की, जौ लों मन में खान।। हो जाता है, भले-बुरे की पहिचान नहीं रहती। तो लों पंडित-मूरखो, तुलसी एक समान ॥ जिस पर क्रोध पाता है, क्रोधी उसे भला बुरा कहने लगता है, गाली देने लगता है, मारने लगता महात्मानों के अनेक उपदेशों के बावजूद भी है यहां तक कि स्वयं की जान जोखम में डालकर प्रादमी इनसे बच नहीं पाया। भी उसका बुरा करना चाहता है। यदि कोई 'इन कमजोरियों के कारण प्राणियों ने अनेक हितैषी पूज्य पुरुष भी बीच में आवे तो उसे भी कष्ट उठाये हैं, उठा रहे हैं और उठायेंगे। इनसे भला, बुरा कहने लगता है, मारने को तैयार बचने के भी उसने कम उपाय नहीं किए, पर बात हो जाता है । यदि इतने पर भी उसका बुरा न हो वहीं की वहीं रही। कई बार इसके महत्वपूर्ण तो, स्वयं बहुत दुःखी होता है, अपने ही अंगों का कार्य बनते-बनते इन्हीं विकृतियों के कारण घात करने लगता है, माथा कूटने लगता है, यहां बिगड़े हैं। तक कि विषादि-भक्षण द्वारा मर तक जाता है। महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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