SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मौर जीवन की सुख-शान्ति मानिनी की भांति उससे रुष्ट हैं । तीर्थङ्कर महावीर ने केवलज्ञान के उपरान्त ३२ वर्ष तक अनवरत भ्रमण कर जीवन के वास्तविक सत्यों से जनता का परिचय कराया। उनके ज्ञान - सूर्य की भास्वर रश्मियों ने अज्ञान तिमिर की पर्तों का भेदन किया। उनके वचन रूपी चन्दन ने तप्त मानवता पर शीतल लेप किया । उन्होंने जातिवाद का निरसन कर कर्म की महत्ता उद्घोषित की । व्यक्ति को ही उसके कर्मों के लिए उत्तरदायी घोषित कर उसे अनुपम श्रौर श्रद्वितीय शक्ति का बोध कराया । उसे अपने में निहित ईश्वरत्व के प्रति सचेत किया । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त, वीर्य और अनन्त सुख से युक्त अपनी आत्मा के वैभव को पा लेने हेतु प्रेरित किया । परमज्योति महावीर के सिद्धान्तों में से श्रहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त रूप त्रिरत्न का आधुनिक युग के बदलते सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में अवलोकन पर्याप्त है । शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा व प्रभुत्व की कामना इस युग में पुनः सजग हो उठी है । अनुपम शस्त्र प्रदान कर विज्ञान ने इस उभरती हुई विकृति को गति दी है । अनेक राष्ट्र इस प्रतिस्पर्द्धा में सम्मिलित हैं, शेष : राष्ट्र चिन्तित हैं । युद्ध की.. विभीषिकायें मानव समाज के जीवन को अव्यवस्थितः र भयत्रस्त किये हुये हैं । शांति की उपलब्धि विश्व की ज्वलन्त समस्या है। युग इसके समाधान की आशा में चारों दिशाओं में निर्निमेष कातर हरपात कर रहा है । युग की इसी श्रावश्यकता ने राष्ट्रसंघ जैसी संस्थानों को जन्म दिया । शान्ति की इस वर्तमान विकट समस्या का समाधान अहिसा के सिद्धांत में सन्निहित है । श्रहसा में हो व्यष्टि और समष्टि के उज्ज्वल वर्तमान और मंगलमय भविष्य के दर्शन होते हैं । सभ्यता श्रौर संस्कृति के बीज अहिंसा के अनुकूल वातावरण 1-86 Jain Education International में ही अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित होते हैं । हिंसा दुःख की मूल तथा अहिंसा सुख की खान, धर्मो का सार, श्रात्मा की निधि और जीवन का वरदान है । आचार्य समन्तभद्र ने इसे ही परम् ब्रह्म कहा है। समस्त धर्मों द्वारा अहिंसा की प्राण-प्रतिष्ठा किये जाने पर भी यह सत्य है कि जैन दर्शन में ही इसकी वैज्ञानिक सुव्यवस्थित, क्रमिक और तर्कसंगत विवेचना की गई है । जैनों द्वारा ही प्राचीनकाल से इसका शुद्ध रीति से संरक्षरण किया गया है । हिंसा तत्वज्ञान का सर्वाङ्गीण वर्णन एवं परिपालन जैन संस्कृति की शीतल छत्रछाया ही हुआ है । तीर्थंकर महावीर की अहिसा इतनी व्यापक और विस्तृत है कि वह सत्य, श्रचौर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों को अपने में समाहित किये हुये है । हिंसा हिंसा का निषेध नहीं, वरन् संसार के समस्त चेतन प्राणियों के प्रति हृदय से सतत् प्रवाहित होने वाला स्नेह - निर्भर है । अहिंसक के हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति वीतराग प्रेम विद्यमान रहता है । इस अहिंसा के सद्भाव में हिंसा स्वतः दूर हो जाती है । भगवान् महावीर ने अहिंसा की प्रावश्यकता मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रतिपादित की, कि जीवन सभी को, संसार के क्षुद्रतम प्रारणी को भी प्रत्यन्त प्रिय है, मरण नहीं ग्रतः जो बात हमें श्रप्रिय है, निश्चित ही दूसरों को भी अप्रिय होगी, अतः धर्म का सार यही है - स्वयं को प्रतिकूल प्रतीत होनें वाला श्राचरण दूसरों के प्रति भी न करें । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् । प्राणियों के प्रारण और शरीर का विच्छेदन मात्र हिंसा नहीं है, अपितु अनुदात्त भावनाओं का महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy