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________________ धर्म सावं होने के साथ-साथ सार्वकालिक भी है। क्योंकि वह प्रात्मा का स्वभाव होता है। तीन काल में भी वह आत्मा से पृथक् नहीं हो सकता प्रतः प्रत्येक काल की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। इसीलिए उसका मूलतत्व सर्वथा अपरिवर्तनीय होता है। हाँ, उसका बाह्य देश काल की परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है । प्राज वासदियों से भरे जीवन में जितनी समस्याएं भौतिकता की ओर उन्मुखता के कारण उठ खड़ी हुई हैं उतनी शायद पहले नहीं थी। किन्तु तीर्थकर प्रणीत धर्म सब समस्याओं का निदान अपनी विशिष्ट शैली में प्रस्तुत करता है। प्र० सम्पादक बदलते सन्दर्भो में तीर्थंकर डॉ० कुसुम पटोरिया 'पोपटकर हाऊस, सदर, नागपुर परिवर्तन प्रकृति की शाश्वत नियति है। दिया था । स्वार्थ और हिंसा उन्मुक्त अट्टहास कर परिवर्तन का सतत् प्रवहमान चक्र अपनी गति से रहे थे। यज्ञों के पवित्र मन्त्रोच्चार मूक और अनवरत घूम रहा है । प्रतिपल परिवर्त्यमान संसार निरपराध पशुओं की करुण चीत्कारों से सम्मिश्रित इसके सर्वव्यापी पाश में आबद्ध है। मानवीय प्राव- हो अपनी महिमा को लघु कर रहे थे। श्यकतायें और विचारधारायें नित नूतन परिधान युग की आवश्यकता ने मानवता के प्रश्र पूर्ण में आवेष्टित दृष्टिगत होती हैं । निरन्तर परिवर्तनों । मुख पर सौम्य स्मिति लाने के लिये, शान्ति की के उपरान्त भी मानव की जीवन-पद्धति अद्यावधि मन्दाकिनी और अहिंसा का निर्भर प्रवाहित करने नवीनता के लिये परिवर्तन का मुख देख रही है। के लिये दिव्य नररत्न को जन्म दिया। भगवान् के सृष्टि के चिरन्तन प्रश्न और जीवन रहस्य भी द्वारा उपदिष्ट शाश्वत् सिद्धान्त उस युग की अपना रूप बदल चुके हैं। समस्याओं के लिये जितने सफल समाधान थे, उतने भगवान् महावीर के युग से लेकर इस युग के ही प्राज के बदलते सन्दर्भो के लिये भी हैं। उनका दीर्घ अन्तराल की अवधि में समस्यायें और परि- एक-एक सिद्धान्त वचनोदधि से निःसृत बह महार्ह स्थितियां आमूल बदल चुकी हैं । तीर्थङ्कर महावीर मणि है, जो मानवता के शिरोभूषण में जटित होने योग्य है। ने अपने अवतरण से इस वसुधरा को उस समय पवित्र किया था, जबकि भारतवर्ष एक संक्रमण माज का युग भी युद्ध की विभीषिका से काल से गुजर रहा था । श्रमण संस्कृति के शाश्वत संत्रस्त है। आर्थिक विषमता और स्वार्थपरता सिद्धान्तों और उदात्त आदर्शों को कोमलमति जनता अपनी सीमा लांध चुकी है। द्वष और घृणा के विस्मृतप्राय कर चुकी थी। कर्मकाण्ड प्रधान वातचक्र में मानव की कोमल अनुभूतियां व वैदिक संस्कृति अपने विकृत रूप का प्रदर्शन कर पारस्परिक सौहार्द शुष्क पत्रों की भांति भटक रही थी । यज्ञों से निर्गत धूम-शिखा ने वातावरण रहे हैं। बुद्धिजीवी युग का मानव अपने कुतों से के साथ-साथ मानव-बुद्धि को भी कलुषित कर वास्तविकता को अस्वीकार कर रहा है। नैतिकता महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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