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________________ सद्भाव हिसा है, फिर भले ही वहां प्राणिघात भिन्नाभिन्नस्य पुनः पीड़ा संजायतेतरां घोरा । न हो । हिंस्य प्राणी के जीवन-मरण से हिंसा का देहवियोगे यस्मासस्मात् निवारिता हिंसा ।। सम्बन्ध नहीं, उसका सम्बन्ध हिंसक प्राणी की भावनाओं से है। क्रोध का अभाव अहिंसा तथा अहिंसा आत्मा का स्वाभाविक गुण है, हिंसा, सद्भाव हिंसा तो सर्वमान्य है, पर जैन आचार्य क्रोध आदि इसके आगन्तुक विकार । जैसे शीतलता अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, अरति, शोक, काम जल का स्वाभाविक गुण है, उष्णता अग्नि के प्रादि को भी हिंसा की पर्याय मानते हैं। क्योंकि सम्पर्क से उत्पन्न विकार । आत्मा अनादिकाल से इनसे चेतन की निर्मलवृत्ति कलुषित होती है। कषाय से रञ्जित होने के कारण स्वभाव को खो चुका है, उस स्वभाव की प्राप्ति के लिये क्रमिक कतिपय विद्वानों की धारणा के अनुसार जड़ विकास की आवश्यकता है। इसी विकास-पथ पर शरीर और चेतन आत्मा को पृथक् कर देना हिंसा अग्रसर होने के लिये प्राचार्यों ने गृहस्थधर्म और की सत्य व्याख्या नहीं है क्योंकि शरीर और आत्मा साधुधर्म के दो सोपान निर्मित किये हैं। गृहस्थ सदा से ही भिन्न है। उन्हें पृथक् करने की बात धर्म प्रथम सोपान है, इसमें अहिंसागुव्रत का पालन औपचारिक है । निश्चय से कोई जीव मरता नहीं तथा साधु धर्म में अहिंसा महाव्रत के परिपालन तथा जड़ को मार देने में हिंसा नहीं होती। की व्यवस्था इसी व्यावहारिकता का सुपरिणाम है । हिंसा के चार भेदों संकल्पी, विरोधी, प्रारम्भी और अहिंसा के तत्वज्ञान की इसी दुर्बोधता को उद्यमी-का निरूपण कर संकल्पी हिंसा को सर्वथा हृदयंगम करके प्राचार्य अमृचन्द्र ने लिखा है कि त्याज्य घोषित किया है। अन्य तीन प्रकार की अहिंसा का तत्वज्ञान अतीव गहन है और इसके . हिंसाओं का सर्वथा परित्याग गृहस्थ के लिये असंभव रहस्य को न समझने वाले अज्ञों के लिए सद्गुरु है । मुनि के लिए चारों प्रकार की हिंसा सर्वथा ही शरण है, जिनको अनेकान्त विद्या द्वारा प्रबोध त्याज्य है। प्राप्त होता है। अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का धर्म है । निर्भयता ही वीरता है। अहिंसक स्वयं निर्भय वस्तुतः द्रव्याथिक नय से यह सत्य है कि होकर दूसरों में अभयदान का अमृत वितरित करता पारमा और पुद्गल अनादिकाल से पृथक्-पृथक है । गृहस्थ से मुनितुल्य श्रेष्ठ अहिंसा की प्राशा द्रव्य हैं, पर्यायाथिक नय से यह भी उतना ही सत्य रखने पर अव्यवस्था उत्पन्न होगी। शस्त्रोपजीवी है कि कर्मों के कारण पात्भा अनादिकाल से क्षत्रिय भी निरर्थक अहिंसा का त्याग कर देने पर पुद्गल से संयुक्त है । प्रात्मा की इस अनादि अशुद्ध अशुद्ध अहिंसक है। 'निरर्थकवधत्यागेन क्षत्रियाः अतिनो अवस्था के कारण ही प्राणी जन्म-मरण के बंधनों मताः ।' कायरता अहिंसा का दूषण है । कायरतासे बंधा हुआ है । आचार्य अमितगति का कथन है पूर्वक आततायी के समीप से पलायन की अपेक्षा कि भिन्ना-भिन्न-द्रव्याथिक नय से कथंचित् भिन्न संघर्षरत रहकर मरण प्राप्त करना श्रेयस्कर है। पर्यायार्थिक कथंचित् अभिन्न अात्मा के शरीर से पार्थक्य होने पर अत्यन्त घोर पीड़ा होती है, अहिंसा व्यक्ति के सर्वाङ्गपूर्ण विकास का सिद्धांत प्रतएव किसी जीव के शरीरघात होने पर हिंसा है। आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया है । अवश्य होती है। वह प्राणिमात्र को संसार में निर्विघ्न रूप से जीने महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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