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श्रमणविद्या-३
न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं ।
अवेरेन च सम्पन्ति एस धम्मो सनन्तनो ।।' वे आगे कहते हैं कि विजय घृणा को जन्म देती है, क्योंकि विजित व्यक्ति दुःखी होता है
जयं वेरं पसवति दुक्खं सेति पराजितो । ___ उस युग के लिए उनका सन्देश नवीनता लिए हुए था, क्योंकि वह व्यक्तिगत ईश्वर में विश्वास के बिना ही सुख और अनन्त आनन्द की प्रतिश्रुत्ति देता है। परलोक के सम्बन्ध में समस्त प्रकार के विद्वात्तापूर्ण विचारविमर्श को उन्होनें हतोत्साहित किया और कहा कि उनके लिए समस्त प्रकार के तात्त्विक मतभेद अन्तर्मन की शान्ति के लिए हानिकारक हैं। वे चतरार्य सत्यों की उपलब्धि द्वारा अज्ञान, तृष्णा और आसक्ति को दूर मिटाने को सबसे अधिक महत्त्व देते थे। उन्होनें समझाया कि प्रतीयमान संसार का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है- केवल अज्ञानी और अमननशील मन के आगे ही कुछ कारण और परिस्थितियाँ वस्तु को वास्तविक प्रतीत कराती है। उन्होनें उत्पत्ति और दुःखनिवृत्ति की अतिसूक्ष्म रूपरेखा प्रस्तुत की है और मध्यपथ और आर्य सत्यों की उपलब्धि को औषधि के रूप में निर्देशित किया है।
बुद्ध के समग्र शिक्षण को जो कि पथ के अन्तर्गत जाता है, हम तीन भागों में बाँट सकते हैं जैसे-शील, चित्त और पञ्जा; शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक अभ्यास। बौद्ध धर्म में नैतिक एषणा और दार्शनिक उपलब्धि के ये तीन विचार बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
शील या शारीरिक अभ्यास एक व्यापक नैतिक नीति संहिता है जिसमें सम्मावाचा सही वचन सम्माकम्मन्त सही आचरण और सम्मा आजीव सही जीविका इत्यादि। नैतिकता के पाँच महत्वपूर्ण तत्व हैं-अचौर्य, सदाचार, मिथ्या न बोलना, मादक द्रव्य-असेवन जीविका के लिए दुराचरण न करना। समाज शास्त्र की दृष्टि से ये निषेध अत्यन्त अर्थपूर्ण हैं। ये उस शारीरिक अनुशासन के सूचक हैं जिसके पश्चात् मानसिक शिक्षा या चित्त आता है और जिसकी पराकाष्ठा चिन्तन, मनन है जो अपने में सम्माव्यायाम सही अभ्यास सम्मासति सही चिन्तन और सम्मासमाधि सही ध्यान मनन को समेटे हुए है। मनासिक
१. Ibid. ५
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