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श्रमणविद्या- ३
यहाँ नाम रूप का अशेष निरोध हो जाता है— एत्थ नामं च रूपं च असे उपरुज्झति । दीघनिकाय में कहा गया है कि वह अनिदर्शन ( न देखने योग्य) अनन्त विज्ञान है, स्वभाव में सर्वतः प्रभास्वर है । यहाँ जल, पृथ्वीं, तेज और वायु की पहुँच नहीं है। यहाँ बड़ा, छोटा, अणु और स्थूल, शुभ और अशुभ नैतिक और अनैतिक कुशल और अकुशल कुछ नहीं है। यहाँ नाम और रूप का अशेष निरोध हो जाता है
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विञ्ञाणं अनिदस्सनं अनन्तं सब्बतोपभं ।
एत्थ आपो च पठवी च तेजो वायो न गाधति ।।
एत्थ दीघा च रस्सं च अणुथूलं सुभासुभं ।
एत्थ नामं च रूपं च असेसं उपरुज्झति ।। ( दी. नि. केवटसुत्त) । निर्वाण का साक्षात्कार तृष्णा के अशेषक्षय के इसका अनुभावन अर्हत् को होता है। निर्वाण के निम्नपंक्तियों में किया जा सकता है
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अनन्तर होता है। और आनन्द का अनुभावन
अयोधन हतस्सेव जलतो जात वेदसो,
अनुपुब्बूपसन्तस्स यत्थ न जायते गति । एवं सम्मा विमुत्तानं काम-बन्धोघतारिनं
पञ्ञातुं 'गतिनत्थि, पत्तानं अचलं सुखं ।। उदान ( दुतियदब्बसुत्त)
लोहे के दण्ड पर हथौड़ा मारने पर स्फुल्लिंग निकलते हैं और तिरोहित हो जाते हैं। कोई यह नहीं बता सकता है उनके बारे में कि वे किस दिशा में गए। उसी प्रकार कोई उसके बारे में कुछ वक्तव्य नहीं दे सकता है जिसने अपने को पूर्णतः मुक्त कर लिया है और जिसने कामभोगों की बाढ़ को पार कर लिया है और अचल सुख को प्राप्त कर लिया है।
१०. अकम्पचित्त- अर्थात् लोकधर्मों से संस्पृष्ट होकर जिसका चित्त प्रकम्पित नहीं होता है, अकम्पित रहता है, वह उसके लिए मङ्गल है। क्योंकि यह अकम्पनीय लोकोत्तम भाव को धारण करता है। भगवान् बुद्ध ने कहा है. ये आठ लोकधर्म संसार को अभिभूत करता है, सताता है। वे आठ हैं- लाभ, अलाभ, प्रसिद्धि-अप्रसिद्धि, प्रशंसा - अप्रशंसा, तुष्टि - अतुष्टि । ये आठ लोक धर्म
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